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जब भी मैं नरेन्द्र मोदी को लेकर न्यूज चैनलों पर गदहे की लीद फैलते और एंकरों की ओर से उसे मथते देखता हूं और इधर सोशल मीडिया के तुर्रमखां को उसके नाम पर खो-खो,कबड्डी खेलते देखता हूं मुझे नलिन मेहता की किताब इंडिया ऑन टेलीविजन का अध्याय 7 यानी Modi and the camera: the politics of television in the 2000 gujrat riots का ध्यान आ जाता है. मोदी पर बात करने के बीच इस अध्याय को शामिल करना बेहद जरुरी है और तब आप समझ सकेंगे कि जिस गुजरात नरसंहार को लेकर नरेन्द्र मोदी ने अपनी ब्रांड इमेज( एपको जैसी कंपनी को करोड़ों रुपये देकर) दुरुस्त करने की कोशिश की और धीरे-धीरे मामले को इस तरह ट्विस्ट किया कि अब सब मोदी बनाम कांग्रेस हो गया है, दरअसल इस पूरे प्रसंग में मीडिया बिल्कुल पूरी तरह छूट गया.

आप जैसे ही मोदी बनाम कांग्रेस या मोदी और बीजेपी के अन्तर्कलह को बहस का मुद्दा बनाते हैं,एक बड़ा संदर्भ आपके हाथ से निकल जाता है. मसलन नरेन्द्र मोदी,गुजरात नरसंहार और इसके पीछे उसका मीडिया मैनेजमेंट के बीच क्या कभी उन मीडियाकर्मियों की जुबान को शामिल करते हैं, जिन्होंने उस समय और अभी भी गुजरात को कवर किया और करते आ रहे हैं. एक शो सिर्फ इस बात पर हो कि उस वक्त किस-किस ने गुजरात कवर किया था और उनके किस तरह के अनुभव रहे थे.

नलिन मेहता अपने इस अध्याय में जब लिखते हैं कि इस दौरान चैनल के मालिक को लाइव कवरेज किए जाने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया, कैमरामैन को बुरी तरह पीटा गया, कई राष्ट्रीय चैनल के संवाददाताओं पर जुल्म ढाहे गए, नरेन्द्र मोदी ने खुलेआम एक के बाद एक अपने भाषण में कहा कि टेलीविजन नेटवर्क गुजरात की छवि को गंदला करने और यहां के लोगों को बलात्कारी और हत्यारा बनाने में लगे हैं और इससे गुजरात की अस्मिता को खतरा है( chief minister Narendra Modi, in speech after speech,sought to paint the national media as the villain of the piece. the televison networks had 'besmirch(ed) Gujratis as rapists and murderers',he declared) तो इससे आप सहज अंदाजा लगा सकते हैं कि वो इस न्यूज मीडिया को लेकर क्या राय रखते थे. और आपको क्या लगता है कि ऐसा उन्होंने सिर्फ भाषणों में बोलकर छोड़ दिया. नलिन मेहता ने आजतक,एनडीटीवी जैसे चैनलों और बरखा दत्त जैसी मीडियाकर्मियों का बाकायदा नाम जिक्र करके बताया है कि इन सबों के साथ नरेन्द्र मोदी की सरकार ने क्या किया और कैसे कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी ?

तब टेलीविजन नया था और स्वयं नरेन्द्र मोदी को इस बात का अंदाजा नहीं था कि उसका इस कदर असर होगा कि दुनियाभर में मेरी और गुजरात की छवि मुसलमानों के साथ भेदभाव करनेवाले के रुप में इस कदर बनेगी कि हमारे लिए हत्यारा जैसे शब्द का प्रयोग किया जाने लगेगा. इसमे अमेरिकी टेलीविजन भी सक्रिय होंगे. लेकिन जब इस टेलीविजन ने अपना असर दिखाना शुरु किया तो नरेन्द्र मोदी को भी अपनी लीला रचने में( कुचलने के अलावे दूसरे स्तर पर भी) समय नहीं लगा. मसलन उसी साल नबम्वर में नरेन्द्र मोदी ने इस नरसंहार मामले को धोने-पोछने के लिए गुजरात गौरव यात्रा किया तो उसी मीडिया को मैनेज करने की कोशिश की और अब तो खुले तौर पर वे इसमे कामयाब है, जिन्हें जमकर कुचलने की कोशिश करते रहे.

दिल्ली से 30 पत्रकारों के लिए इस यात्रा को कवर के इंतजाम किए गए, नरेन्द्र मोदी तब अपने भाषण गुजराती में ही दिया करते थे लेकिन इसमें उन्होंने गुजरातियों से माफी मांगते हुए हिन्दी में दिया और कहा कि ऐसा वे टेलीविजन बंधु के लिए कर रहे हैं ताकि पूरी दुनिया के लोग उनके भाषण को सुन सके( 'so the whole world should hear his speech') जाहिर है जब पूरी दुनिया में नरेन्द्र मोदी की छवि मुस्लिमों का हत्यारा के रुप में बन रही थी तो उनके संत होने की छवि भी पूरी दुनिया के बीच की बननी थी. इस काम में टेलीविजन ने जमकर मदद किया. इस बीच नरेन्द्र मोदी को लेकर खबरें आती रहीं, कोर्ट में सुनवाई को लेकर फुटेज दिखाए जाते रहे और उपरी तौर पर तल्खी दिखने के बावजूद इन न्यूज चैनलों की तासीर काफी हद तक कम होती चली गई. बीच-बीच में ये खबर जरुर सुनने को मिले कि आजतक के फलां रिपोर्टर पर हमला किया, कैमरे तोड़ दिए, चैनल बैन कर दिया लेकिन नरेन्द्र मोदी न केवल चुनाव जीते बल्कि देखते-देखते इसी मीडिया में उसकी छवि विकास पुरुष के रुप में बनती चली गई. ये जरुर है कि इसी गुजरात कवरेज से कई टेलीविजन चेहरे एकाएक चमके और इन्डस्ट्री में काफी तरक्की कर गए. जैसे उनके लिए ये नरसंहार वरदान बनकर आया हो.

लेकिन आज अगर गुजरात में किसी के कैमरे तोड़े नहीं जाते, किसी रिपोर्टर पर हमले नहीं होते या किसी चैनल को बैन नहीं किया जाता तो इसका मतलब क्या निकाला जाए, नरेन्द्र मोदी इस 12-13 सालों में पहले से बहुत ही ज्यादा उदार हो गए हैं या फिर मीडिया की कमान संपादक के हाथों खिसककर उस बैलेंस शीट पर जाकर खिसक गया है जहां मोदी और गुजरात सामाजिक-राजनीतिक स्तर की बहस का मुद्दा नहीं है, लूडो की गोटियां हैं जिन्हें बारी-बारी से लाल करनी है या फिर स्क्रीन की टैटो जिन्हें दर्शकों के आगे गर्म करने दागनी है ? आज जो सारे चैनलों पर नरेन्द्र मोदी बनाम कांग्रेस चल रहा है और इसी के इर्द-गिर्द सेकुलरिज्म,हिन्दुत्व और सांप्रदायिकता के छल्ले बनाए जा रहे हैं क्या ये सिर्फ इन दो राजनीतिक पार्टियों के बीच बनाम खेल है, जिस मीडिया को पहले नरेन्द्र मोदी ने बुरी तरह कुचलने की कोशिश की, कुचला वो मीडिया नरेन्द्र मोदी का बनाम नहीं हो सकता था ? अगर क्रांग्रेस औऱ इस देश के मतदाताओं के अपने सेकुलरिज्म है तो मीडिया के भीतर या उसके अपने सेकुलरिज्म नहीं है या नहीं होने चाहिए. आज टीवी चैनल जो नरेन्द्र मोदी को कांग्रेस का भारी दुश्मन( दुश्मन न भी कहें तो प्रतिपक्ष ही सही) बता रहा है क्या खुद मीडिया के लिए वो उतने ही बड़े दुश्मन नहीं रहे हैं ?

आप जब भी इस सिरे से सवाल को समझने की कोशिश करेंगे तो सहज रुप से समझ सकेंगे कि मीडिया नरेन्द्र मोदी और उसकी सरकार से शुरुआती दौर में मारपीट, घमकी,डंडे खाने के बाद धीरे-धीरे मैनेज होता चला गया( अब तो नरेन्द्र मोदी मीडिया के लिए बाकायदा एक क्लाइंट है), वो अपने मोर्चे पर इस मीडिया विरोधी से अपनी लड़ाई बहुत पहले हार चुका है और अपनी इस हार को उन उलजुलूल बहसों में उलझाकर धारदार होने का भ्रम पैदा कर रहा है जिसके भीतर उसके सिर्फ और सिर्फ अर्थशास्त्र पनप रहे हैं. तब आप कहेंगे कि जो मीडिया खुद अपने मोर्चे पर हार चुका है, वो भला किस निष्कर्ष तक हम दर्शकों को ले जाएगा ? तो आखिर उसने किया क्या है ?

किया ये है  कि करीब दो-दो घंटे तक लाइव फुटेज चला रहा है और नरेन्द्र मोदी की फील्डिंग और मीडिया मैनेजमेंट ने सोशल मीडिया पर ऐसे हजारों तुर्रमखां पैदा कर दिए हैं, जिन्हें इसमें कहीं कोई दिक्कत नजर नहीं आता. आखिर मीडिया की कंसेंट मेकिंग थीअरि ऐसे ही तो काम करती है. चूंकि हमारे यहां राजनीतिक घटनाओं के इतिहास लेखन के अलावे मीडिया को लेकर इतिहास लेखन की परंपरा नहीं है तो इस सिरे से सब हवा-हवा हो जाता है लेकिन नलिन जैसे लोग आगे इस पर गंभीरता से काम करेंगे शायद.

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3 Response to 'क्या नरेन्द्र मोदी बनाम कांग्रेस की जगह बनाम मीडिया बहस संभव है ?'
  1. PD
    http://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post_16.html?showComment=1373994530870#c819416330487785729'> 16 जुलाई 2013 को 10:38 pm बजे

    एक नया आयाम समझने को मिला, जो हम जैसे मिडिया के बाहर के लोगों के लिए बिलकुल नया था. शुक्रिया विनीत.

     

  2. अनूप शुक्ल
    http://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post_16.html?showComment=1373995072300#c5186405183369467152'> 16 जुलाई 2013 को 10:47 pm बजे

    मीडिया की प्रवृत्ति के बारे में अच्छा लेख।

    कुछ दिन के लिये ये बहसें अगर बंद हो जाये तो सभी के लिये अच्छा है। लेकिन मीडिया बेचारा और फ़िर करेगा क्या? :)

     

  3. Satyajeetprakash
    http://taanabaana.blogspot.com/2013/07/blog-post_16.html?showComment=1374056704430#c3821817866352461996'> 17 जुलाई 2013 को 3:55 pm बजे

    विनीत जी आपने कहा कि मीडिया नायक को खलनायक बना देता है और खलनायक को नायक। मीडिया पहले स्वतंत्र था और अब बिक गया है। बिक गया है इसलिए नरेंद्र मोदी पर बहस कर रहा है। यानी जब मीडिया बहस नहीं कर रहा था तो वो नरेंद्र मोदी को खलनायक बना रहा था। इससे साफ होता है कि मीडिया ही खलनायक है। लेकिन मीडिया खलनायक है नहीं, बल्कि मीडिया के कुछ लोग ही खलनायक हैं। वो मीडिया हाउस को दुकान की तरह इस्तेमाल करते हैं। ये उत्साही खलनायक गुजरात दंगों के समांतर 1984 के सिख विरोध दंगों को खड़ा करते-करते कह देते हैं कि उस वक्त टीवी चैनल्स नहीं थे, इसलिए दंगों का वैसा वीभत्स रूप नहीं दिखा जो गुजरात दंगों के दौरान दिखा गया। आंख के इन अंधों को महान सेक्यूलरवादी मुलायम के बेटे अखिलेख के एक वर्ष के शासन में हुए पचास से ज्यादा दंगे नहीं दिखते हैं, मुलायम और अखिलेश अभी भी सेक्यूलरिज्म के प्रतिमूर्ति हैं। इन धृतराष्ट्रों को असम के हालिया दंगे नहीं दिखते हैं, जहां सैकड़ों लोग मारे गए थे। सोनिया, मनमोहन इसके बावजूद धर्मनिरपेक्षता का मुक्तिपत्र बांट रहे हैं और गोगोई अब भी महान बने हुए। लेकिन मोदी एक दंगे की वजह से खलनायक बन गए क्योंकि वो आरएसएस के स्वयंसेवक हैं। वाह रे पत्रकारिता। वाह से ऐसे लोगों की समझ।

     

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