आज से करीब ढाई साल पहले 16 मई 2008 को महमूद फारुकी( दास्तानगो,इतिहासकार और पीपली लाइव फिल्म के सहनिर्देशक) ने विनायक सेन की गिरफ्तारी के खिलाफ होनेवाले कार्यक्रम में दास्तानगोई की थी। साथ में दानिश भी थे। उस दिन इन दोनों का मिजाज बिल्कुल अलग था। दास्तानगोई की कहानी के साथ ही माहौल के मुताबिक एक ही साथ कई मिले-जुले भाव। रवीन्द्र भवन,साहित्य अकादमी परिसर में खचाखच लोग भरे थे। खुले में देर शाम तक लोग टस से मस नहीं हुए। आज उस शाम और दास्तानगोई का जिक्र फिर से करना चाहता हूं। वहां से लौटकर मैंने जो पोस्ट लिखी,एक बार फिर से साझा करना चाहता हूं। दीवान-सीएसडीएस सराय के भंडार में ये पोस्ट आज भी मौजूद हैं। लेकिन नए सिरे से इसे आज फिर पढ़ना आपको जरुर लगे,ऐसी उम्मीद है। इस नीयत और भरोसे के साथ कि अब किसी एक शख्स और मुद्दे के साथ छिटपुट तरीके से प्रतिरोध जाहिर करने से कहीं ज्यादा जरुरी है,अभिव्यक्ति की आजादी सुनिश्चित न किए जाने तक लड़ते रहना,धक्के देते रहना,चीजों को अपनी कोशिशों से दरकाते रहना। हम अब सिर्फ लेखक या ब्लॉगर की हैसियत से नहीं,सोशल एक्टिविस्ट की तरह मैंदान में उतरना चाहते हैं।
महमूद फारुकी साहब ने कल रात जब दास्तान गोई में अय्यारी और जादूगरी का किस्सा सुनाया जिसमें चारों तरफ से सुरक्षा के नाम पर प्रहरी के घेर लेने पर जुडूम-जुडूम की आवाज आती थी तो मुझे बस एक ही बात समझ में आयी कि-
फारुकी साहब की दास्तान गोई में भी कुछ ऐसा ही हो रहा था जहां जादूगर अय्यारों को कुछ इस तरह की सुरक्षा दे रहे थे कि अय्यार तबाह-तबाह हो गए। लेकिन ये जादूगर एक सुरक्षित मुल्क बनाने पर आमादा थे। फारुकी साहब के हिसाब से वो मुल्क-ए-कोहिस्तान बनाना चाह रहे थे। जहां के लिए सबसे खतरनाक शब्द था- आजादी।
हमारे देश की सरकार भी एक सुरक्षित मुल्क बनाने में जी-जान से जुटी है। वो देश के नागरिकों को सुरक्षा देना चाहती है। लेकिन बिना उनसे पूछे और बिना उनसे जानें कि उन्हें उस सुरक्षा की जरुरत है भी है या नहीं या फिर लोग आखिर सुरक्षा चाहते भी हैं तो किससे। बिना जनता की इच्छा के जो सुरक्षा मिलती है उसे आप क्या कहेंगे? छत्तीसगढ़ की सरकार तो मानकर चल रही है कि उनकी जनता बहुत तकलीफ में है और असुरक्षित भी। तकलीफ की बात तो बाद में देखेंगे लेकिन फिलहाल तो उन्हें सुरक्षित रखना जरुरी है। ये मौका थोड़े ही है कि जनता तय करे कि उन्हें सुरक्षा चाहिए कि नहीं। जब सरकार को पता है कि उसकी जनता सुरक्षित नहीं है तो फिर जानते हुए वो अपनी प्यारी जनता को मरने कैसे दे। यह मामला जनता की पसंद-नापसंद का नहीं है। ये मामला है जनता को बचाने का और ऐसी विपत घड़ी में बचाने के लिए छत्तीसगढ़ की सरकार के पास जो सबसे ज्यादा उम्दा तरीका है- वो है सलवा जुडूम। लेकिन सवाल है कि सरकार के रहते जनता को खतरा है भी तो किससे।
छत्तीसगढ़ की सरकार के मुताबिक वहां की जनता को, वहां के जगलों में बसनेवाले आदिवासियों को माओवादियों से खतरा है। वो आदिवासियों को सताते हैं। वो जल, जंगल जमीन और दूसरे साधनों पर कब्जा करके जनता को इन सबसे महरुम करते हैं। वो बिजली के खंभों को उखाड़ फेंकते हैं। यानि ये माओवादी जनता के विरोधी हैं इसलिए सरकार के विरोधी हैं औऱ जब इसने पूरे इलाकों में त्राहि मचा रखा है जहां कि जनता सुरक्षित नहीं है तो फिर कैसे उनके बीच छोड़ दिया जाए। इसलिए क्यों न सुरक्षा के मजबूत घेरे का इंतजाम किया जाए। सलवा जुडूम इसी मजबूती के घेरे का नाम है।
लेकिन असल सवाल है कि इस सुरक्षा घेरे में राज्य की जनता और आदिवासी वाकई सुरक्षित है। सरकार के हिसाब से सुरक्षा की परिभाषा में एक इँसान के सिर्फ सांस लेते रहना भर है तब तो वो वाकई सुरक्षित हैं। कोई उन्हें मार नहीं सकता। लेकिन सरकार से कोई पूछे कि बिना मतलब के सांसों के लेने औऱ चलने का क्या मतलब है। बस जिन्दा शब्द को बचाए रखने के लिए सरकार इतना सब कुछ कर रही है तो फिर मजबूरन सरकार को सुरक्षा की परिभाषा में फेरबदल करनी होगी।
सरकार सलवा जुडूम के जरिए जिस गांव और बस्ती से लोगों को बाहर निकालकर, उन्हें कैम्प औऱ शिविरों में डालकर वहां पर हथियार बंद दस्ते तैनात कर दिए हैं वहां सुरक्षित और असुरक्षिक के क्या मायने रह जाते हैं। जिस गांव में खेत लहलहाने चाहिए, पंगडंडियों पर लोगों का आना जाना बना रहता वहां पर सिर्फ औऱ सिर्फ दहशत औऱ दस्तों के जूतों के टापों के अलावे कुछ भी सुनाई नहीं देते. ऐसी सुरक्षा कायम करके सरकार आखिर साबित क्या करना चाहती है।
दूसरी तरफ सलवा जुडूम के नाम पर सैंकड़ों लोगों को गांव से निकाल-बाहर किया गया, मारा गया। 664 गांव के लोगों को जबर्दस्ती निकालकर उन्हें मात्र 27 कैम्पों में ठूंस दिया गया। उनके साथ जानवरों से भी बदतर बर्ताव किया गया। उनकी रोजी-रोटी छिन गयी। वो रातोंरात बेघर और बेरोजगार हो गए।.. उनके बच्चों की पढ़ाई छूट गयी। आप समझ सकते हैं कि सरकार के इस कदम से एक अच्छी-खासी पीढ़ी अभी से ही बेरोजगार पीढ़ी में कन्वर्ट होती जा रही है। इन सबके वाबजूद सरकार के हिसाब से ये सुरक्षित हैं, क्योंकि ये सांस लेने की स्थिति में हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार की इस सुरक्षा नीति और सलवा जुडूम के खिलाफ जो कि मानव विरोधी नीति है, हजारों हाथ उठे हैं, हजारों लोगों ने आवाज बुलंद किए औऱ इसे खत्म करने की मांग की। सरकार को इन आवाजों के बीच एक आवाज सुनायी दी और उसने जल्द से जल्द इस आवाज को चुप करना चाहा। उस उठे हुए हाथ को नीचे करना चाहा। ये आवाज थी विनायक सेन की और उठे हाथ थे विनायक सेन की। आज वो जेल में हैं।
विनायक सेन सरकार की इसी सुरक्षा के खिलाफ आवाज उठाने के शिकार हुए। सरकार ने उनपर कई झूठे मुकदमें लगाए हैं। उन्हें दबाना चाहती है, उनकी आवाज को दबाना चाहती है. एक ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता की आवाज को जिसके चिकित्सीय प्रयासों की कायल कभी खुद सरकार हुआ करती थी। एक ऐसे व्यक्ति की आवाज को दबाना चाहती है जिनके कामों की अगर काव्यात्मक अभिव्यक्ति दें तो-
या तो अ ब स की तरह जीना है या फिर सुकरात की तरह जहर पीना है..
नागरिक अधिकारों की बात करनेवाले, आदिवासियों के बीच चुपचाप इलाज करनेवाले विनायक सेन की गलती सिर्फ इतनी है कि वो जनता की तकलीफों की जड़ तक गए औ जब जड़ खोज निकाला तो पाया कि हमारे शोषक और सेवक की जड़े आपस में गुंथी पड़ी है. बस...
लेकिन फारुकी साहब के दास्तान गोई के शब्दों में- अय्यार एक ही थोड़े हैं जादूगर, किस-किस के चारो ओर सुरक्षा के फेरे डालोगे और उससे कब तक जुडूम-जुडूम की आवाज आती रहेगी?
महमूद फारुकी साहब ने कल रात जब दास्तान गोई में अय्यारी और जादूगरी का किस्सा सुनाया जिसमें चारों तरफ से सुरक्षा के नाम पर प्रहरी के घेर लेने पर जुडूम-जुडूम की आवाज आती थी तो मुझे बस एक ही बात समझ में आयी कि-
यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना ज़मीर होना ज़िंदगी के लिए शर्त बन जाए
आंख की पुतली में 'हां'के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है
कि बिना ज़मीर होना ज़िंदगी के लिए शर्त बन जाए
आंख की पुतली में 'हां'के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है
-पाश
हमारे देश की सरकार भी एक सुरक्षित मुल्क बनाने में जी-जान से जुटी है। वो देश के नागरिकों को सुरक्षा देना चाहती है। लेकिन बिना उनसे पूछे और बिना उनसे जानें कि उन्हें उस सुरक्षा की जरुरत है भी है या नहीं या फिर लोग आखिर सुरक्षा चाहते भी हैं तो किससे। बिना जनता की इच्छा के जो सुरक्षा मिलती है उसे आप क्या कहेंगे? छत्तीसगढ़ की सरकार तो मानकर चल रही है कि उनकी जनता बहुत तकलीफ में है और असुरक्षित भी। तकलीफ की बात तो बाद में देखेंगे लेकिन फिलहाल तो उन्हें सुरक्षित रखना जरुरी है। ये मौका थोड़े ही है कि जनता तय करे कि उन्हें सुरक्षा चाहिए कि नहीं। जब सरकार को पता है कि उसकी जनता सुरक्षित नहीं है तो फिर जानते हुए वो अपनी प्यारी जनता को मरने कैसे दे। यह मामला जनता की पसंद-नापसंद का नहीं है। ये मामला है जनता को बचाने का और ऐसी विपत घड़ी में बचाने के लिए छत्तीसगढ़ की सरकार के पास जो सबसे ज्यादा उम्दा तरीका है- वो है सलवा जुडूम। लेकिन सवाल है कि सरकार के रहते जनता को खतरा है भी तो किससे।
छत्तीसगढ़ की सरकार के मुताबिक वहां की जनता को, वहां के जगलों में बसनेवाले आदिवासियों को माओवादियों से खतरा है। वो आदिवासियों को सताते हैं। वो जल, जंगल जमीन और दूसरे साधनों पर कब्जा करके जनता को इन सबसे महरुम करते हैं। वो बिजली के खंभों को उखाड़ फेंकते हैं। यानि ये माओवादी जनता के विरोधी हैं इसलिए सरकार के विरोधी हैं औऱ जब इसने पूरे इलाकों में त्राहि मचा रखा है जहां कि जनता सुरक्षित नहीं है तो फिर कैसे उनके बीच छोड़ दिया जाए। इसलिए क्यों न सुरक्षा के मजबूत घेरे का इंतजाम किया जाए। सलवा जुडूम इसी मजबूती के घेरे का नाम है।
लेकिन असल सवाल है कि इस सुरक्षा घेरे में राज्य की जनता और आदिवासी वाकई सुरक्षित है। सरकार के हिसाब से सुरक्षा की परिभाषा में एक इँसान के सिर्फ सांस लेते रहना भर है तब तो वो वाकई सुरक्षित हैं। कोई उन्हें मार नहीं सकता। लेकिन सरकार से कोई पूछे कि बिना मतलब के सांसों के लेने औऱ चलने का क्या मतलब है। बस जिन्दा शब्द को बचाए रखने के लिए सरकार इतना सब कुछ कर रही है तो फिर मजबूरन सरकार को सुरक्षा की परिभाषा में फेरबदल करनी होगी।
सरकार सलवा जुडूम के जरिए जिस गांव और बस्ती से लोगों को बाहर निकालकर, उन्हें कैम्प औऱ शिविरों में डालकर वहां पर हथियार बंद दस्ते तैनात कर दिए हैं वहां सुरक्षित और असुरक्षिक के क्या मायने रह जाते हैं। जिस गांव में खेत लहलहाने चाहिए, पंगडंडियों पर लोगों का आना जाना बना रहता वहां पर सिर्फ औऱ सिर्फ दहशत औऱ दस्तों के जूतों के टापों के अलावे कुछ भी सुनाई नहीं देते. ऐसी सुरक्षा कायम करके सरकार आखिर साबित क्या करना चाहती है।
दूसरी तरफ सलवा जुडूम के नाम पर सैंकड़ों लोगों को गांव से निकाल-बाहर किया गया, मारा गया। 664 गांव के लोगों को जबर्दस्ती निकालकर उन्हें मात्र 27 कैम्पों में ठूंस दिया गया। उनके साथ जानवरों से भी बदतर बर्ताव किया गया। उनकी रोजी-रोटी छिन गयी। वो रातोंरात बेघर और बेरोजगार हो गए।.. उनके बच्चों की पढ़ाई छूट गयी। आप समझ सकते हैं कि सरकार के इस कदम से एक अच्छी-खासी पीढ़ी अभी से ही बेरोजगार पीढ़ी में कन्वर्ट होती जा रही है। इन सबके वाबजूद सरकार के हिसाब से ये सुरक्षित हैं, क्योंकि ये सांस लेने की स्थिति में हैं।
छत्तीसगढ़ सरकार की इस सुरक्षा नीति और सलवा जुडूम के खिलाफ जो कि मानव विरोधी नीति है, हजारों हाथ उठे हैं, हजारों लोगों ने आवाज बुलंद किए औऱ इसे खत्म करने की मांग की। सरकार को इन आवाजों के बीच एक आवाज सुनायी दी और उसने जल्द से जल्द इस आवाज को चुप करना चाहा। उस उठे हुए हाथ को नीचे करना चाहा। ये आवाज थी विनायक सेन की और उठे हाथ थे विनायक सेन की। आज वो जेल में हैं।
विनायक सेन सरकार की इसी सुरक्षा के खिलाफ आवाज उठाने के शिकार हुए। सरकार ने उनपर कई झूठे मुकदमें लगाए हैं। उन्हें दबाना चाहती है, उनकी आवाज को दबाना चाहती है. एक ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता की आवाज को जिसके चिकित्सीय प्रयासों की कायल कभी खुद सरकार हुआ करती थी। एक ऐसे व्यक्ति की आवाज को दबाना चाहती है जिनके कामों की अगर काव्यात्मक अभिव्यक्ति दें तो-
या तो अ ब स की तरह जीना है या फिर सुकरात की तरह जहर पीना है..
नागरिक अधिकारों की बात करनेवाले, आदिवासियों के बीच चुपचाप इलाज करनेवाले विनायक सेन की गलती सिर्फ इतनी है कि वो जनता की तकलीफों की जड़ तक गए औ जब जड़ खोज निकाला तो पाया कि हमारे शोषक और सेवक की जड़े आपस में गुंथी पड़ी है. बस...
लेकिन फारुकी साहब के दास्तान गोई के शब्दों में- अय्यार एक ही थोड़े हैं जादूगर, किस-किस के चारो ओर सुरक्षा के फेरे डालोगे और उससे कब तक जुडूम-जुडूम की आवाज आती रहेगी?
http://taanabaana.blogspot.com/2010/12/blog-post_25.html?showComment=1293297308941#c2432080593629079761'> 25 दिसंबर 2010 को 10:45 pm बजे
अब मेरा हक बनता है
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मैंने टिकट खरीदकर
आपके लोकतन्त्र का नाटक देखा है
अब तो मेरा प्रेक्षाग्रिह में बैठकर
हाय-हाय करने और चीखें मारने का
हक बनता है
आपने भी टिकट देते समय
टके तक की छूट नहीं दी
और मैं भी अपनी पसंद की बाजू पकड
गद्दे फ़ाड दूंगा
और पर्दे ज़ला डालूंगा.
--------पाश
http://taanabaana.blogspot.com/2010/12/blog-post_25.html?showComment=1293337823496#c7920712904948669621'> 26 दिसंबर 2010 को 10:00 am बजे
... gambheer maslaa !!!