इन दिनों मोहल्लाlive पर खबरों में मिलावट पर बहस जारी है। खबरों में मिलावट इस साइट का गढ़ा हुआ शब्द नहीं है बल्कि मौजूदा मीडिया को विश्लेषित करने के लिए आउटलुक के संपादक नीलाभ मिश्र ने इसका प्रयोग 12 जुलाई को पत्रकार उदयन शर्मा की याद में आयोजित संगोष्ठी में किया। संगोष्ठी के बाद ये शब्द और नजरिया भीड़ में गुम न हो जाए जैसा कि आमतौर पर होता आया है,इसलिए मोहल्लाlive इसके अन्तर्गत मीडिया के अलग-अलग संस्थानों और माध्यमों से जुड़े लोगों की राय को लगातार प्रकाशित करने का काम कर रहा है। इस कड़ी में मैंने भी अपने विचार दिए हैं। आप भी एक नजर डालें और इस बहस को आगे बढ़ाएं-
12 जुलाई की शाम देश के मशहूर पत्रकार उदयन शर्मा की याद में आयोजित मीडिया संगोष्ठी में आउटलुक हिंदी के संपादक नीलाभ मिश्र ने जो बात कही है, वो हममें से कई लोगों को एकदम से नयी और बाकी पत्रकारों की समझ से बिल्कुल अलग लग रही है। ऐसा इसलिए भी है कि सोचने और करने के स्तर पर चाहे अधिकांश पत्रकार वही कर रहे हों, जिसे नीलाभ ने मीडिया के लिए अब तक प्रचलित शब्दों से अलग टर्मनलॉजी का इस्तेमाल करते हुए कहा है, लेकिन विचारने के स्तर पर नीलाभ जैसा क्लियर स्टैंड नहीं बना पाये हैं। पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग है, जो अभी तक इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि पत्रकारिता के नाम पर वो जो कुछ भी कर रहा है, दरअसल बाजार के बीच की बाकी गतिविधियों की तरह ही एक किस्म की गतिविधि है। वो दिन-रात पाठक और ऑडिएंस की चिंता शामिल करते हुए उसके नाम पर वो सब कुछ लिख रहा है, दिखा रहा है, जिससे कि आम पाठक और ऑडिएंस की समझ में इज़ाफा होने के बजाय बाज़ार, पूंजी और दमन करनेवाली मशीनरी के हाथ मज़बूत होते हैं, लेकिन अपने को इस तरह की गतिविधि में शामिल होने से साफ बचाना चाहता है। इसलिए वो अपनी जुबान से ये बात मानने को तैयार है कि मीडिया के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है वो सब बकवास है, कूड़ा है, इसमें अधकचरापन है – खुद ऑफिस से निकलते हुए ये कहता है कि बंडलबाजी करते हुए एक दिन और बीत गया, लेकिन ये बात सुनने के लिए तैयार नहीं है कि वो ये सब कुछ मीडिया संस्थान के मालिकों की इच्छा और इशारे से कर रहा है… बाज़ार की शर्तों के आगे गुलाम होकर कर रहा है। इसलिए नीलाभ जब ये कहते हैं कि जिस तरह से दूध सहित बाकी उपभोक्ता वस्तुओं में मिलावट होने की स्थिति में उसके उत्पादकों के खिलाफ शिकायत की जाती है, तो ख़बरों के मामले में ऐसा क्यों नहीं – तो लगता है कि मीडिया को दुरुस्त करने की दिशा में एक नये पहलू को समझने की चिंता सामने आ रही है। ख़बरों को उत्पाद और पाठक को खालिस उपभोक्ता समझने से एकबारगी तो ऐसा लगता है कि मीडिया विमर्श का एक नया सिरा हाथ लग गया है और इसके जरिए मीडिया और दर्शकों-पाठकों के बीच अमन का राग गाया-बजाया जा सकता है। लेकिन, ठहर कर सोचिए तो नीलाभ जो बात कह रहे हैं, वो मीडिया में फैले कचरे को दूर करने से कहीं ज्यादा इस बात को घोषित करने की मुहिम ज्यादा है कि कुछ भी करने से पहले आप ये मानिए कि आप लोगों के बीच हाथ में कलम, की-बोर्ड और बाइक लिये जहां खड़े हैं, वो समाज सुधारकों की पवित्र भूमि होने के बजाय बाज़ार है, जहां कि मानवीय संवेदना, भावना और बड़े-बड़े मूल्यों के लागू होने के बजाय बाज़ार की शर्तें लागू होंगी।
नीलाभ ने मीडिया के कचरे को दूर करने के लिए, उसके अंदर घुल चुके मिलावटीपन को फिल्टर करने के लिए जो उपाय बताये हैं, ज़रूरी नहीं कि व्यवहार के स्तर पर वो उसी रूप में काम करेंगे, जैसा कि हर उपाय को सोचने के दौरान किये जाते हैं। हर कानून को बनाने के पहले शैतान से साधु बनने की प्रक्रिया एकदम से दिमाग़ में घूमने लग जाती है। मुझे लगता है कि नीलाभ के इन नये शब्दों के छिलके को अगर उतार दें, तो पूरी बहस एक बार फिर मीडिया मिशन या प्रोफेशन है, के दायरे में चक्कर काटने लगती है। हां, यहां हम उनकी बातों के मुरीद इसलिए बन गये हैं कि उन्होंने साहस के साथ ये मान लिया है कि पत्रकारिता मिशन के बजाय बाज़ार का हिस्सा है और हमें इसके बारे में उसी तरीके से सोचने चाहिए जिस तरह से बाज़ार को रेगुलेट करने की दिशा में सोचते हैं। हमें पाठकों पर नैतिकता, मानव मूल्य जैसे भारी-भरकम एहसान करने के बजाय एक उपभोक्ता के तौर पर न्याय करने की दिशा में सोचना होगा। ऐसा करते हुए नीलाभ मीडिया विमर्श करने आये बुद्धिजीवियों के दरवाजे़ को बदल देते हैं। अब तक दिन-रात बाजार के भीतर रह कर खाने-कमाने वाले लोग जैसे ही विमर्श के लिए आते हैं, तो वो उसी दरवाजे़ से न आकर साहित्य, नैतिक शिक्षा, समाजशास्त्र के दरवाजे़ से घुस कर आ जाते हैं। सब कुछ अच्छा-अच्छा बोल कर निकल जाते हैं। नीलाभ इन दरवाजों से आने के बजाय उसी दरवाजे़ से आने की बात करते हैं, जिससे कि उनका रोज़ का आना-जाना होता है। मीडिया विमर्श के लिए अलग से पूजाघर बनाने की ज़रूरत को सिरे से नकार देते हैं।
मुझे लगता है कि मौजूदा मीडिया, चाहे वो प्रिंट हो, इलेक्ट्रॉनिक हो और अब वेब, इन सबके ऊपर कानून और आयोग जैसे मसले के साथ जोड़कर देखने से पहले इस बात पर विचार करने की ज़रूरत ज्यादा है कि बुनियादी तौर पर इसकी प्रकृति क्या है, ख़बरों को जुटाने से लेकर पेश किये जाने तक का तरीका कैसा है, उसके पीछे की शर्तें किस रूप में काम करती हैं। इसे जाने-समझे औऱ विश्लेषित किये बिना आप चाहे जितने भी कानून बना दें, वो पेनकीलर (pain killer) का काम करेगा, कोई ठोस निदान संभव न हो सकेगा। अब देखिए न, अभी तक प्रिंट मीडिया ने देश के तथाकथित बुद्धिजीवियों से संपादकीय पन्नों पर टेलीविजन और न्यूज़ चैनलों के विरोध में जम कर लिखवाया। भला हो लिखनेवाले का कि बिना वस्तुस्थिति को समझे ही टीवी और न्यूज़ चैनलों के खिलाफ़ लिखते रहे। कभी इसे सामाजिक संदर्भ से जोड़ कर ग़लत साबित किया, कभी इसके प्रभाव को लेकर नकारात्मक लिखा और रही-सही कसर ये कह कर निकालते रहे कि ये पूंजी के हाथों बिका हुआ माध्यम है, उपभोक्ता संस्कृति को बढ़ावा देता है। नतीजा ये हुआ कि इनके लिखने का टेलीविजन देखनेवाले लोगों पर कितना असर हुआ, इसे तो छोड़ दीजिए लेकिन प्रिंट मीडिया को दूध का धुला साबित करने का एक महौल बनाया। ऐसा महौल कि टेलीविजन में काम करनेवाले सारे लोग अनपढ़ हैं, कम जानकार लोग हैं जबकि प्रिंट के लोग विश्लेषण की ताक़त रखतें हैं, भले ही वो दिनभर साइट से उठा-उठाकर जर्जर अनुवाद हमारे सामने ख़बर की शक्ल में रखते हों। ये तो 2009 के लोकसभा चुनाव का शुक्रिया अदा कीजिए, जिसने कि मज़बूत सरकार देने से ज़्यादा ये साबित कर दिया कि प्रिंट मीडिया बाज़ार के हाथों ज़्यादा बुरी तरह बिके हैं, ख़बरों के नाम पर मिलावटी का काम न्यूज़ चैनलों से ज्यादा यहां हुआ है। इसलिए पहला काम जो कि मुझे लगता है, माध्यमों के स्तर पर साधु और शैतान साबित करने का, जेनरेशन के आधार पर मसीहा और हैवान साबित करने का और प्रस्तुति के स्तर पर अवतार रूप और भांड रूप देने का जो काम चल रहा है, वो बंद होने चाहिए। पहले आप इसे समझिए कि आप जो कर रहे हैं वो कर क्या रहे हैं, किसके लिए कर रहे हैं, इसका असर क्या हो सकता है, आपके लिए कितना टिकाऊ है ऐसा करना। उसके बाद कानून और आयोग को लेकर बात कीजिए। इसे आप मैनेजमैंट का आरवाइ यानी रिस्पॉन्सीविलिटी योरसेल्फ कह सकते हैं।
अंतिम बात कि अगर आपको पूरे मीडिया में बाज़ार ही इतना ज़रूरी लगता है तो उसे ईमानदारीपूर्वक, स्थिर होकर सोचने की कोशिश कीजिए। आपको बाज़ार की वास्तविकता को समझने के नाम पर न तो उसका ग़ुलाम बनने की ज़रूरत है और न ही उसका भोंपा बनने की अनिवार्यता। ऐसा होने से एक धारणा पनपती है कि बिना मोटी पूंजी के मीडिया का चलना संभव ही नहीं है। अब देखिए कि जिन अख़बारों ने पैसे लेकर चुनावी ख़बरें छापी, उन्होंने कितने सस्ते में मीडिया का बट्टा लगा दिया। बाज़ार का एक शब्द है, ब्रांड इमेज। उसे समझ ही नहीं पाये। अब है कि मीडिया की ऐसी हर ख़बर झूठी मानी जाने लग जाएगी, जिनको लेकर परेशानी पैदा हो सकती है। वो तमाम लोग इसकी जम कर आलोचना करेंगे, मीडिया की उस आवाज़ को दबाने की कोशिश करेंगे जिसमें सच भी शामिल है। जाहिर हममें से कोई नहीं चाहते कि स्वार्थवश, क्षुद्रताओं की आड़ में जिस तरह की हरकतें जारी हैं उसे मीडिया आलोचना की कैटेगरी में शामिल कर लें और हम भी उसमें शामिल हो जाएं।
मेरे साथ ही की खेप में पूजा प्रसाद,विपिन चौधरी औऱ मृणाल वल्लरी के विचार को जानने के लिए क्लिक करें- बिकाउ मीडिया से पर्दा उठाने के लिए थैंक यू आम चुनाव
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/07/blog-post_16.html?showComment=1247722610110#c5179620521075191563'> 16 जुलाई 2009 को 11:06 am बजे
नीलाभ मिश्र ने कौन-सी नयी बात कह दी। खबरों में जब से बाजार शामिल हुआ है तब से वे मिलावटी हो चुकी हैं। अब पत्रकारों की मिलावटी कलमों के बारे में आपका क्या कहना है मित्र?
http://taanabaana.blogspot.com/2009/07/blog-post_16.html?showComment=1247722872912#c3572749377510661376'> 16 जुलाई 2009 को 11:11 am बजे
इसी बहस का एक मंच यहाँ भी है.
www.baharhaal.blogspot.com
http://taanabaana.blogspot.com/2009/07/blog-post_16.html?showComment=1247829779873#c6429430828425293729'> 17 जुलाई 2009 को 4:52 pm बजे
मिलावट के इस खेल के पीछे बाजार का जो दबदबा है, वह सही समझ आया।