.


बीस हजार से लेकर दो लाख तक की फीस देकर कोर्स करनेवाले औऱ अब नौकरी के लिए दर-दर भटकनेवाले बिहार के मीडिया स्टूडेंट शायद पोस्ट की शीर्षक देखकर ही भड़क जाएं। उन्हें इस पर भारी आपत्ति और असहमति हो सकती है। संभव है हममे से कई लोग इसे आरोप के तौर पर लें, मीडिया हाउस के अंदर काम कर रहे लोगों को बदनाम करने की साजिश समझें लेकिन ऐसा क्या है कि हमने बिहारी हो न, तब चिंता काहे करते हो,तुम्हारी नौकरी तो रखी हुई है मीडिया में सुन-सुनकर कोर्स पूरा किया। कोर्स करने के दौरान जब भी हम चिंता जताने की कोशिश करते कि किसी तरह कोर्स तो कर ले रहे हैं लेकिन नौकरी कैसे मिलेगी,तभी साथ के कुछ लोग हमारे उपर पिल पड़ते- ज्यादा बनो मत,स्साले बिहारी,तुमलोगों को तो बुलाकर नौकरी दी जाएगी। इसी एक लाइन को सुन-सुनकर कुछेक साउथ इंडियन क्लासमेट में स्साले बिहारी बोलना सीख गयी थी और हम उन पर फिदा हो जाते जबकि किसी लौंडे के बोलने पर मार करने तक की नौबत आ जाती। नौकरी की बात चलते ही हमलोगों को ठीक उसी तरह ट्रीट किया जाता जैसे जेनरल से आनेवाले लोग कैटेगरी से आनेवाले लोगों के बारे में कहा करते हैं- उसका क्या, उसका तो कोटा है,नौकरी तो धरी हुई है उसकी,पढ़े चाहे नहीं पढ़े।

ऐसी स्थिति में जाति और क्षेत्र पर भरोसा न होते हुए भी भीतर ही भीतर एक निश्चिंतता बोध पैदा होता कि चलो,नौकरी तो मिलनी ही है। वो नौकरी जिसमें कोर्स अच्छी तरह करने से ज्यादा बिहारी होने की क्रेडिट पर मिलनी है। कोर्स में तो फिर भी किसी तरह की झंझट और प्रोजेक्ट में हमसे ज्यादा लड़कियों को नंबर देकर आगे-पीछे किया जा सकता है लेकिन हमसे,हमारे बिहारी होने की क्रेडिट कोई छिन नहीं सकता। लेकिन इससे अलग एक दूसरी स्थिति ये भी बनती कि साथ के लोगों को जिनमें से ज्यादा बिहार के नहीं होते,नौकरी के मामले में हमलोगों से बराबर इर्ष्या का भाव बना रहता। जब वो कहते,हिन्दी मीडिया में नौकरी करनी है तो बिहार से पैदा होकर आओ तो कभी तो अच्छा लगता कि चलो इन्हें कहीं न कहीं बिहार की औकात का अंदाजा तो लेकिन बाद में जिस रुप में हमने चीजों को समझा,व्यवहार को जानने की कोशिश की,उससे साफ अंदाजा लग गया कि ये हमारे लिए कितनी खतरनाक स्थिति है। हमारी नौकरी मिलने से पहले ही हमें कैसे नौकरी मिली है का लेबल चस्पा दिया गया है। अफसोस कि ऐसी मानसिकता पैदा करने के हम ही जिम्मेदार रहे हैं। हमें ही चैनल का नाम लेते ही उसमें अपनी बिरादरी का कोई भाई,चचा या फूफा याद आ जाता है। हम जाति और क्षेत्र आधारित पीआर बनाने में फंसे रह जाते हैं, प्रोफेशन के स्तर पर अपने को कम ही चमकाते हैं। जिस किसी में कम योग्यता है,वो इसे रिप्लेस करते हुए संबंध,जाति और क्षेत्र की प्लेसिंग करने लग जाता है। ऐसा करके वो जुनइन बिहार के लोगों ( मीडिया के लिए) की जड़ो में मठ्ठा घोलने का काम करते हैं,इसका अंदाजा नहीं लगा पाते। जो जब-तब नफरत और उपेक्षा के तौर पर सामने आता है। ऐसे में अब आप लाख कहते रह जाइए कि हमने इंटरव्यू में ये कर दिया,वो कर दिया फर्क नहीं पड़ता। दिल्ली के भारतीय विद्या भवन में हमने इसी महौल में रखकर कोर्स पूरा किया।

लेकिन इससे ठीक पहले की पोस्ट खांडेकर जैसे संपादक किसकी जुबान बोल रहे हैं पढ़कर माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय,भोपाल से मीडिया कोर्स करने अब भोपाल में ही अखबार में काम करनेवाले एक साथी ने फोन करके बताया- आप खांडेकर का विरोध कर रहे हैं, हमें अच्छा लग रहा है, इस तरह की क्षेत्रवाद से प्रभावित राइटिंग को हमें किसी भी हद तक विरोध करना चाहिए लेकिन एक बात आपको बताउं। माखनलाल में जब लोग मीडिया का कोर्स करने आते हैं तो बिहार के लोगों का दबदबा इतना अधिक होता है कि भोपाल और एमपी के दूसरे हिस्से से आए लोग अपने को बहुत ही नेग्लेक्टेड फील करते हैं। नतीजा ये होता है कि पूरी क्लास या बैच दो खेमें में बंट जाती है- बिहार से आए लोग एक तरफ और देश के बाकी हिस्सों से आए लोग एक तरफ। आपको लगेगा ही नहीं कि वो मीडिया में काम करने के लिए अपने को तैयार कर रहे हैं,लगेगा कि अखाड़े में लड़ने के लिए अपने को तैयार कर रहे हैं। बात अगर व्यक्तिगत स्तर पर करुं तो बिहारी औऱ नॉनबिहारी को लेकर खेमेबाजी मैंने देश के तीन-चार संस्थानों में स्पष्ट तौर पर देखा है, पता नहीं बाकी संस्थानों की क्या स्थिति है ?
जातिवाद और क्षेत्रवाद का विरोध करने के वाबजूद भी अगर आपकी नौकरी का संबंध जाति और क्षेत्र से हैं-मतलब कि अगर आपको ये लगे कि सामने बैठा बंदा जिसके हाथ में नौकरी देने की ताकत है वो हमारी जाति या क्षेत्र का है तो इंटरव्यू के दौरान आप ज्यादा कॉन्फीडेंस फील करते हैं। अपने एक क्लासमेट की भाषा में कहूं तो- अरे इसको इंटरव्यू नहींए कहो तो सही रहेगा, जात-बिरादरी का मामला था,हो गया।। नौकरी के लिए जिन्होंने इंटरव्यू लिया उन्होंने मेरा प्रोफाइल देखते ही कहा- मैंने भी हिन्दी से ही एमए किया है। इतना सुनते ही मेरे भीतर जाति और क्षेत्रवाला आत्मविश्वास पहले खत्म हो गया था क्योंकि बातचीत के दौरान पहले राउंड में उंटरव्यू देकर आए लोगों ने बता दिया था कि वो बिहार से नहीं हैं और मेरी जानकारी के लिए ये भी बता दिया कि वो तुम्हारे बिरादरी से नहीं है। हिन्दी सुनकर खोया हुआ आत्मविश्वास फिर से लौट आया- मन ही मन सोचा,एक हिन्दीवाला, हिन्दीवाले की प्रतिभा और दर्द को नहीं समझेगा तो कौन समझेगा और वो भी ऐसे महौल में जहां ऑडिएंस के सामने आउटपुट के तौर पर हिन्दी में चीजें लानी होती है लेकिन अंदर का महौल अंग्रेजीदां होता है। ऐसे में हम जाति और क्षेत्र से उपर उठकर विषय पर आकर स्थिर हो गए। मौके के हिसाब से हमारा आत्मविश्वास क्षेत्र के बजाय सब्जेक्ट पर आकर शिफ्ट हो गया। लेकिन इतना तय था कि जिंदगी में हर जगह इंटरव्यू लेनेवाला हिन्दी का नहीं होगा। खैर,
चैनल के भीतर काम करते हुए हमने देश के तमाम मीडिया हाउस को उसके नाम के अलावा अलग ढंग से जाना। ये जानना किस हद तक सही था, बता नहीं सकता लेकिन इतना जरुर था कि कोर्स के दौरान पूरी हिन्दी मीडिया खासकर न्यूज चैनलों के मामले में हम जो समझते आए कि बिहार का होने से मामला आसानी से बन जाता है, धीरे-धीरे भरभराकर टूट जाता है। हममें से कोई भी जो कि क्षेत्रवाद पर भरोसा नहीं करता है, उसे लगता है कि उसे उसकी योग्यता के हिसाब से जाना-पहचाना जाना चाहिए, उसे ऐसी स्थिति में खुश होना चाहिए। लेकिन चैनलों की जो समझ हमें आसपास के लोगों से मिल रही थी उसके हिसाब से कोई चैनल झा तक है, कोई भूमियार 24 इनटू 7, कोई राजपूत न्यूज तो को बाबाजी कम्युनिकेशन। हैरत तो तब हुई जब हममे से कई लोग अपनी जाति औऱ बिरादरी के हिसाब से उन चैनलों में जाने के लिए छटपटाते नजर आए। वो ऐसा करके अपने को सेफ जोन में मानते। उनके हिसाब से नौकरी मिल जाना ही काफी नहीं है, उसे बनाए,बचाए और उसकी जड़ों को मजबूत करते रहना ज्यादा जरुरी है। लोग जब हमसे पूछते हैं कि ये बड़े-बड़े पत्रकार जो देश बदल देने का दावा करते हैं, इधर-उधर कूंद-फांद क्यों मचाए रहते हैं। इसके जबाब में मैं सैलरी पैकेज और इगो प्रॉब्लम के अलावे कोई और कारण नहीं बता पाता। लेकिन जो नए पत्रकार हैं,बीच की स्थिति में हैं, उनके इधर से उधर जाने की वजह हैरान करनेवाली लगी। अपनी बिरादरी का बॉस खोजने में हमारे साथियों ने जो उर्जा लगाया उसे देखकर हैरानी होती है।
इन सबके वाबजूद हम खांडेकर के भोपाल के जंगलराज के लिए बिहार शब्द का प्रयोग किए जाने पर प्रतिरोध में खड़े हैं। हम इसका विश्लेषण महाराष्ट्र,बिहार और पूर्वांचल की राजनीति को लेकर विश्लेषण करने में जुटे हैं। लेकिन अगर कोई मीडिया हाउस की अंदरुनी स्थिति के लिहाज से इस शब्द प्रयोग पर विचार करना शुरु करे तो एक नए किस्म की स्थिति सामने आएगी। लगेगा कि क्षेत्र और जाति को लेकर सिर्फ देशभर के लोग ही एक-दूसरे पर नहीं उबल रहे हैं, मीडिया हाउस के भीतर भी खदबदाहट जारी है और इस मामले में पत्रकार कभी-कभी इतना पर्सनली लेने शुरु करते हैं कि वो एक मुहावरा बनकर सामने आता है। ऐसे में अगर हम ये कहें कि देश से जातिवाद, क्षेत्रवाद और अलगाववाद जब खत्म होंगे तब होंगे लेकिन फिलहाल अगर मीडिया हाउस से ये खत्म हो जाएं तो यकीन मानिए ऐसे शब्दों और वाक्यों के प्रयोग होने एक हद तक बंद हो जाएंगे।
| edit post
4 Response to 'हिन्दी मीडिया की नौकरी के लिए बिहारी होना ही काफी है'
  1. डॉ .अनुराग
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/06/blog-post_22.html?showComment=1245653818089#c3102866474444577141'> 22 जून 2009 को 12:26 pm बजे

    वैसे इस बात में दम तो है जी...क्यूंकि फेवरेटइसम हर जगह चलता है ...मीडिया भी इसका अपवाद नहीं ...

     

  2. Sachi
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/06/blog-post_22.html?showComment=1245676576624#c6503547041802257408'> 22 जून 2009 को 6:46 pm बजे

    The country is being divided more by each coming day. The main reason is unemployement and poverty.

     

  3. सतीश पंचम
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/06/blog-post_22.html?showComment=1245684658908#c6004059947430015184'> 22 जून 2009 को 9:00 pm बजे

    हर क्षेत्र में आपको एक तरह का लोकल ग्रुपिंग बनता मिलेगा। साउथ इंडियन होगा तो जाहिर है कि अपना एक कम्फर्ट जोन बनाये रखने के लिये साउथ वाले को ही प्रेफरेंस देगा, नॉर्थ वाला है तो नार्थ को....लेकिन इसकी भी एक सीमा होती है जो प्रतियोगी बाजार के आने पर धीमी पड जाती है तब योग्यता को ही कुछ हद तक आगे करके अपनी कुर्सी साउथ वाला या नॉर्थ वाला या कहीं और का सही सलामत बनाये रख सकता है।
    लेकिन यह सेफ कम्फर्ट जोन बनाये रखने की बात सच है। सभी प्रांत और क्षेत्र के लोग ऐसा करने की चेष्टा करते है, एकाध अपवाद हों तो अलग बात है।

     

  4. niranjan
    http://taanabaana.blogspot.com/2009/06/blog-post_22.html?showComment=1246532506973#c7256186324679357242'> 2 जुलाई 2009 को 4:31 pm बजे

    bhaiya bihari 2 lakh kharch kar 10 hazar ki naukari nh karta hai. 4000 me course kar 5000 bhi mil jaye bura kya hai.

     

एक टिप्पणी भेजें