अजय ब्रह्मात्मज के कहने पर(मेरे लिए आदेश)हममें से कई लोगों ने सिनेमाघरों को लेकर अपने-अपने संस्मरण लिखे। इस संस्मरण को लिखते हुए हमने सिनेमाघरों के बहाने अपने बचपन को याद किया,छुटपन की शरारतों को याद किया,संबंधों को याद किया। गीताश्री छपरा के सिनेमाघर पर लिखते हुए अपने बाबूजी को याद करती है तो मुझे बिहारशरीफ और टाटानगर के सिनेमाघरों को याद करते हुए मेरे औऱ मां के बीच के उस संबंध की याद आ गयी जो कि आमतौर पर बहुत ही कम लोगों के साथ हुआ करते हैं। हममें से कितने लोग मां के साथ सिनेमा देखते हुए जवान होते हैं? अगर हम ये कहें कि चवन्नी चैप के लिए हिन्दी टॉकिज पर लिखते हुए हम सिनेमा से कहीं ज्यादा सिनेमाघरों में और हीरो-हीरोईन के बीच के उमां-उमां से ज्यादा पड़ोस की बॉबी और अपने बीच पलनेवाले अधपके प्रेम में डूबते चले गए तो गलत नहीं होगा। उस दौर के एक-एक सीन में अपना बचपन धंसा हुआ नजर आने लगता है। संजय दत्त की बॉडी से ज्यादा अपनी वो बांह ज्यादा याद आती है जो हाथ को मोड़ लेने पर बॉडी लगती जबकि अब सोचता हूं तो सूखे और बासी दिखनेवाले पूरे शरीर के हिसाब से वो बलतोड़ से ज्यादा कुछ भी नहीं दिखती होगी। खैर,इतना तो जरुर है कि सिनेमा को याद करने के क्रम में सिनेमाघरों के प्रति जो दिलचस्पी पैद हुई है चाहे वो याद करने के तौर पर या फिर जिस शहर में भी जाओ,एक घड़ी के लिए ही सही वहां के सिनेमाघरों को घूमने की,इसकी क्रेडिट मैं चवन्नी चैप को देने में मैं किसी भी तरह की कोताही नहीं कर सकता।
पिछले दिनों अपने कुछ व्यक्तिगत और एक हद तक रिसर्च के सिलसिले में(टेलीविजन पर लोगों की राय जानने के लिए)बिहार और झारखंड के करीब 11 छोटे-बड़े शहरों में भटकता रहा। कहीं सात घंटे बिताने होते,कहीं पूरा का पूरा दिन और कहीं-कहीं तो कुछ भी नहीं सिर्फ बस या ट्रेन पकड़नी होती और तीन-चार घंटे खाली-पीली करके बिताने होते। ऐसे समय लगता है कि कहां जाएं। इससे पहले भी मैं कई बार इस तरह के सिचुएशन में पड़ा हूं जहां होटल न होने की स्थिति में इन घंटों को काटना भारी पड़ जाता। लेकिन चवन्नी चैप ने सिनेमाघरों को लेकर जिस तरह की दिलचस्पी पैदा की है,उससे अबकी बार मेरी झंझट ही खत्म हो गयी। जहां भी गया,सिनेमाघरों के आस-पास ये घंटे कैसे बीत गए,पता ही नहीं चला। ये अलग बात है कि इन शहरों के तमाम सिनेमाघरों में ऐसी कोई भी फिल्म नहीं लगी थी कि जिसे चलकर देखी जाए लेकिन बाहर जो कुछ भी और जितनी तेजी से बदला है उससे जानने-समझने के लिए ये तीन-चार घंटे वाकई कम पड़ गए। कई सिनेमाघरों के मेन गेट बंद और आसपास फुक-फुक करके जीता हुआ उसका इतिहास। एक-दो ऐसी टॉकिज जो अब सिनेमा से ज्यादा उसके सामने मिलनेवाले मसालेदार चखने के लिए फेमस हुआ जा रहा है और एक-दो टॉकिज जो अपने जमाने की रौनक को याद करते हुए इसे उजाड़ देनेवालों को भूखी आंखों से देख रहा है। इसी क्रम में हम पहुंचें- झुमरी तिलैया की पूर्णिमा टॉकिज, टाटानगर की बसंत टॉकिज औऱ बिहार शरीफ का किसान सिनेमा। पूर्णिमा टॉकिज जिसमें पहली बार बड़ी दीदी की शादी होने पर दीदी,जीजाजी औऱ उनकी बहन के साथ फिल्म देखी थी औऱ बाद में लोगों ने दुनियाभर के मजे लिए,बसंत टॉकिज जहां हाल-हाल तक मां और भाभी धक्के दे-देकर भेजती कि दिनभर में घर में घुसा रहता है,जाओ देख आओ कोई सिनेमा और किसान सिनेमा जिस पर मैंने लिखा- तब मां भी होती थी और सिनेमा भी। इन तीनों सिनेमाघरों का क्या है मौजूदा हाल,पढ़िए अगली पोस्ट में
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/06/blog-post_19.html?showComment=1245390457976#c7413926715099936360'> 19 जून 2009 को 11:17 am बजे
इस दिलचस्प कड़ी का इंतज़ार रहेगा...
नीरज
http://taanabaana.blogspot.com/2009/06/blog-post_19.html?showComment=1245393651379#c4559421420411665563'> 19 जून 2009 को 12:10 pm बजे
अब तो धीरे धीरे सारे के सारे बंद हो रहे हैं।
वैसे अच्छा लगा आपका संस्मरण।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
http://taanabaana.blogspot.com/2009/06/blog-post_19.html?showComment=1245441594193#c8785469668040447542'> 20 जून 2009 को 1:29 am बजे
वो सामने की सीट पर पैर फैलाकर बैठना.. इंटरवल में चवन्नी की मूंग फल्ली खाना.. पडोस से और कौन आया है जानने के लिये उचक उचक कर आगे पीछे देखना, रील टूट जाने पर ऑपरेटर को भद्दी सी गाली देना,अपनी पसन्द का सीन या गाना देखने के लिये गेट्कीपर की खुशामद कर चुपचाप भीतर घुस जाना ,रात रात भर सपनो मे हीरो की जगह खुद को देखना ,हीरोईन की सूरत पडोस की किसी सूरत से मिलाने की कोशिश करना और उससे कहने की हिम्मत ना कर पाना. अमाँ.. ये सुख जिसे ज़िन्दगी में ना मिला हो उसका जीवन व्यर्थ है बोले तो..खल्लास..