झुमरी तिलैया रेलवे स्टेशन को लांघकर जैसे ही हम बस्से अड्डे की तरफ बढ़े,एकदम से कोने में एक गाड़ी लगी थी और दबी जुबान में एक बंदा लोगों को बुला रहा था- आइए हजारीबाग..हजारीबाग..हजारीबाग,प्रेस की गाड़ी में,प्रेस की गाड़ी में। हम उस बंदे के पास गए। उसे हमारे परेशान हाव-भाव को देखकर अंदाजा लग गया था कि हमें किसी भी हाल में हजारीबाग जाना है। उसने बाकी गाडियों से प्रेस की गाड़ियों की तुलना करते हुए जो कुछ भी बताया उसमें सुरक्षा और जल्दी पहुंचाने की गारंटी शामिल थी। गाड़ी चाहे कोई भी हो कमांडर,मिनीडोर या फिर महिन्द्रा...प्रेस की गाड़ी बोलकर यहां अलग से ब्रांडिंग की जा रही थी।
एक- दो और भी गाड़ियां थी जिसके संबंध में यही सारी बातें की जा रही थी जो कि डोभी,चट्टी की ओर जाने वाली थी। बंदे की बात पर भरोसा करके हम गाड़ी की तरफ बढ़े और अंदर का नजारा देखा तो लगा कि ये प्रेस की गाड़ी कम पौल्ट्री फार्म की मुर्गिंयां ढोनेवाली गाड़ी ज्यादा है। एक के उपर एक चढ़े लोग,किसी का भी पूरा शरीर नहीं देखा जा सकता था। किसी ने एक की जांघ दबा ली है तो किसी की बांह में किसी का सिर डूबा है। आप इस नजारे को देखकर अंदाजा ही नहीं लगा सकते कि कुल कितने आदमी बैठे हैं। मैंने बस इतना भर पूछा- इसमें जगह कहां है जो हम चार आदमियों को बैठा पाओगे। बंदे ने गाड़ी की छत की तरफ इशारा करते हुए कहा- अभी उपरे पूरा खाली है और आपको जगहे नहीं दिख रहा है। मैंने फिर सवाल किया- भाईजी,प्रेस की गाड़ी का हवाला देकर सुरक्षा की बात करते हो और यहां छत पर बैठने को कहते हो। उस बंदे को मेरे जाने की नीयत पर शक हुआ इसलिए पल्ला झाड़ते हुआ कहा- आप जैसन कानून छांटनेवाले बीसियो लोग रोज आते हैं,जाना है तो चढ़िए नहीं तो साइड हो लीजिए,पसींजर मत भड़काइए। आपलोग पराइवेट गाडिए पर जाने लायक हैं जहां के खलासी को डेगे-डेग मूतवास लगता है। हम अपना सा मुंह लेकर दूसरे साधन के इंतजार में झुमरी तिलैया बस अड्डे पर अटक गए।
डेढ़ घंटे तक बस दस मिनट में चलने की बात करनेवाली बस से जब हम रांची तक जानेवाली बस पर बैठे तो उसने हमलोगों को रांची बोलकर हजारीबाग तक ही लाकर पटक दिया। वहां से फिर दूसरी बस में टाटानगर तक जानेवाली बस में बैठे। रांची पहुंचते-पहुंचते रात के करीब साढ़े ग्यारह बज गए। पहुंचने के आधे घंटे पहले आकर कंडक्टर ने कहा-देखिए हम बाकी बस वालों की तरह आपसे झूठ बोलकर पैसा नहीं लेगें। हम आपको रांची कांटा टोली तक छोड़ देगें और वहां से किसी गाड़ी में बिठा देंगे। कांटा टोली में आते ही उसने कहा कि हम किस-किसका ठेका लें,यहीं खड़े रहिए आधे घंटे में प्रेस की गाड़ी आएगी,उसी में बैठ जाइएगा। हम प्रेस की गाड़ी का इंतजार करते रहे।
प्रेस की गाड़ी आयी और ठीक हमारे सामने आकर रुक गयी। हम चारों लोग उसमें बैठते ही इत्मिनान हो लिए कि-चलो,आधी रात भी घर पहुंच लिए तो सोकर अगले दिन से अपने-अपने काम में लग जाएंगे। मैंने खुशी से अगले दिन रिलांयस फ्रेश जाने का वायदा किया था। अभी दो मिनट भी नहीं हुए थे कि एक खुस्सट किस्म का बंदा आया और चिल्लाने के अंदाज में कहा- उठिए आपलोग,आपलोग का रिजरवेसन है,जिसका रिजरवेसन है,पहले वोलोग बैठेंगे। हमें कुछ समझ में नहीं आया। लेकिन उसका कहना था कि प्रेस की गाडियों में जाने की बुकिंग रात के दस बजे ही हो जाती है। ऐसा नहीं है कि आप बैठिए और तब टिकट लीजिए। हमलोगों ने जब बहुत जबरदस्ती की तो किसी तरह पीछे बिठाने के लिए तैयार हुआ। ड्राइवर हमारे उपर बहुत ही तेजी से धमाधम प्रभात खबर और दैनिक हिन्दुस्तान के बंडल डाले जा रहा था। मैं दर्द से कराह उठा। मैंने कहा- आपको शर्म नहीं आती,प्रेस की गाड़ी के नाम पर इस तरह की कमीशनखोरी करते हो। आपको पता है कि इस तरह से प्रेस की गाड़ी में रेगुलर वेसिस पर पैसेंजर को बैठाना जुर्म है। भैय्या ने कहा-जाने दो,इनको क्या समझ आएगा। ड्राइवर का सीधा जबाब था- आपसे ज्यादा पढ़े-लिखे हैं। आप उन भोसड़ी अखबार मालिकों से काहे नहीं कम्प्लेन करते हैं जिसको लगता है कि अखबार बटाई का काम पानीवाली गाड़ी से होता है,बड़ा चले हैं हमको समझानेवाले। रांची से टाटानगर का किराया 70 रुपये हैं,कभी-कभी 75 रुपये। बुकिंग करनेवाले ने हमसे 80 रुपये के हिसाब से किराया लिया। एक जो अंतिम में आया उससे 100 रुपये में चलने की बात कही-चलना है तो चलो नहीं तो फूटो यहां से।
रास्ते में ड्राइवर ने आज अखबार के कार्यालय(रांची) के पास गाड़ी रोकी। टाटानगर में दैनिक हिन्दुस्तान के आगे। लेकिन जिन-जिन अखबारों के कार्यालय के आगे गाड़ी रोकता उससे कुछ दूरी पर हमलोगों को उतार देता। ऑफिस के कुछ आगे तक हमें पैदल चलना होता और फिर हमें बिठाता। कोई साधन नहीं होने की मजबूरी में हम प्रेस की गाड़ी में बैठ तो गए लेकिन रास्ते भर तक अपने को मथते रहे- जो अखबार,जो प्रेस दुनिया भर के निकायों की गड़बड़ियों को लेकर विरोध करता हुआ जान पड़ता है,कानून की बात करता है,वो खुद भीतर से कितना खोखला है,इसका अंदाजा वाकई उसे है। एक पैसेंजर ने मुझे उस प्रेस गाड़ी पर चढ़ने की रसीद दिखायी। उसमें न तो किराये की राशि लिखी थी,न तो गाड़ी का नंबर और न ही कोई मुहर या साइन। बस घसीटकर एक लाइन। उस लाइन से कोई क्या समझ सकता है और क्या दावा कर सकता है। ये धंधा इतने रेगुलर तरीके से चल रहा है कि अब बिहार-झारखंड का कोई भी बंदा प्रेस की गाड़ी का सही मतलब समझता है। लेकिन हैरत है इस नाजायज तरीके से चलनेवाले ट्रांसपोर्ट के धंधे पर किसी अखबार की अब तक नजर नहीं गयी। गाड़ी के आगे-पीछे प्रेस का स्टीकर ठोककर औऱ गाड़ी के भीतर मनमानी पैसिंजर ठूंसकर सुरक्षा और कानून का दावा करनेवाले प्रेस का एक नया रुप सामने आता है। क्या इन गाडियों की लाइसेंस पर,सुरक्षा के सवाल पर,इन गाडियों में मनमानी भाड़ा वसूलने और दलाली को बढ़ावा देनेवाले जैसे मुद्दों को लेकर प्रेस संस्थानों पर सवाल नहीं खड़े किए जाने चाहिए?
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/06/blog-post_15.html?showComment=1245043179363#c4674320841682608519'> 15 जून 2009 को 10:49 am बजे
यंहा छत्तीसगढ मे भी प्रेस की गाड़ियां सवारी ढोती है और उनकी हालत राज्य के बनने से पहले वैसी ही होती थी जैसी आपने बताई।लेकिन राज्य बनने के बाद राज्य परिवहन निगम को बंद कर दिया गया और सभी रोड निजी बसों के लिये खोल दिये गये।उसके बाद तो प्रेस की गाडी वालों की हेकड़ी निकल गई।पहले सवारी रिक्वेस्ट करती थी अब वो लोग सवारी से रिक्वेस्ट करते है।किराया भी कम और नान-स्टाप का वादा अलग से।बहुत बढिया लिखा सालो पहले अख़बार के दफ़्तर मे रात को सवारियो को बस स्टैण्ड की तरह जमा होते देखना याद आ गया।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/06/blog-post_15.html?showComment=1245044115833#c12985801693069630'> 15 जून 2009 को 11:05 am बजे
खुद ही बताओ, लाल बत्ती लगा कर सवारियां ढोते कोई अच्छा लगेगा क्या ? गाड़ी पर प्रेस लिखना ही बेहतर है.
http://taanabaana.blogspot.com/2009/06/blog-post_15.html?showComment=1245062207765#c2138844841605896811'> 15 जून 2009 को 4:06 pm बजे
नोएडा से डीएनडी फ्लाइव होकर आप दिल्ली गए हैं..यदि गए है तो आपने जरूर देश की तमाम नामचीन समाचार चैनलों और कॉल सेंटरों के कैब का सहारा लिया होगा। कहना चाहता हूं कि झारखंड के अलावा यहां भी खेल जारी है।