दीवाली के मौके पर मां मेरे लिए खास तौर से दीयाबरनी खरीदती। आपको शायद ये शब्द ही नया लगे लेकिन इसे समझना मुश्किल नहीं है। एक ऐसी लड़की जो दीया बारने यानी जलाने का काम करती है,जो पूरी दुनिया को रौशन करती है। प्रतीक के तौर पर उसके सिर पर तीन दीये होते और जिसे कि रात में रुई की बाती,तीसी का तेल डालकर हम जलाते। मां के शब्दों में कहें तो हमारी बहू भी बिल्कुल ऐसी ही होगी जो कि पूरी दुनिया को रौशन करेगी। आज मां दीयाबरनी खरीदे तो जरुर पूछूंगा कि कि क्या माथे पर दीया लादकर पूरी दुनिया को रौशन करने का ठेका तुम्हारी बहू ने ही ले रखी है?
खैर,
दीदी और मोहल्ले भर की लड़कियां जिसे कि मां के डर से बहन मानकर व्यवहार करता,इस दिन घरौंदे बनाती। ये घरौंदे अमूमन तीन तरीके के बनाए जाते। एक तो आंगन की दीवारों पर,दूसरा लकड़ी का बना बनाया और तीसरा अब के जमाने के घरौंदे थर्माकॉल और फेबीकॉल के दम पर चिपकाए गए। दीदी लोग सिर्फ दीवार पर ही घरौंदे बनाती। आंगन का एक हिस्सा अपने कब्जे में कर लेती और बड़ा-सा वर्ग घेरकर उसे अपने काम में लाती। दीवारों पर अलग-अलग किस्म की तस्वीरें बनाती। मोर,पेड़,मटके भरकर जाती हुई रतें,झोपड़ी औ नारियल के पेड बगैरह..बगैरह। कुल मिलाकर इस घरौंदे में खुशहाल गृहस्थ की कल्पना होती। इन चित्रों को रंगने के लिए बड़े ही प्राकृतिक तरीके से रंगों का इस्तेमाल किया जाता। पीले रंग के लिए हल्दी,ब्लू रंग के लिए कपड़े में डाला जानेवाला आरती मार्का नील,हरे रंग के लिए चूर-चूरकर पत्तियों से निकाला गया रस। सिर्फ गुलाबी रंग बना-बनाया बाजार से मंगवाती। मोहल्ले की कुछ लड़कियां इस दीवारवाले घरौंदे पर अपने-अपने पसंद के भगवान की तस्वीरें भी चिपकाने लगी। ऐसे घरौंदे मैंने चार साल पहले देखें हैं जिस पर लड़कियों ने ऐश्वर्या,माधुरी,सलमान खान की भी तस्वीरें चिपकानी शुरु कर दी है। इस घरौंदे के नीचे दीदी लोग मिट्टी के बर्तन जिसे कि वनचुकड़ी कहा करती,लाइन से सजाती। यही पर आकर मुझे उनकी चिरौरी करनी पड़ जाती। मैं कहता- ये मां ने अकेले हमें दीयाबरनी थमा दिया है,अब अपने घरौंदे में इसे भी जगह दे दो। वो कहती कि अभी रुको,पहले बर्तन सज जाने दो। फिर वो साइड में लगा देती,मैं कहता बीच में रखो,वो मना करती। फिर उलाहने देती,तुम एतना सेंटिया काहे जाते हो इसको लेकर,तुम तो ऐसा करने लगते हो कि ये सही मे तुम्हारी पत्नी है,एक बार मां ने कह क्या दिया कि एकदम से पगला जा रहे हो। मैं सचमुच इमोशनल हो जाता। मैं तब तक दीदियों के आगे-पीछे करता,जब तक वो उसे मेरे बन मुताबिक जगह न दे दे। लेकिन एक बात है कि रात में जब दीयाबरनी के सिर पर तीन रखे दीए को जलाते तो दीदी कहती- तुमरी दीयाबरनिया तो बड़ी फब रही है छोटे। देखो तो पीयर ब्लॉउज रोशनी में कैसे चमचमा रहा है,सच में बियाह कर लायो इसको क्या छोटू? दीदी के साथ उसकी सहेलियां होतीं औऱ साथ में उसकी छोटी बहन भी। मैं उसे देखता और फिर शर्माता,मुस्कराता। दीदी कहती-देखो तो कैसे लखैरा जैसा मुस्करा रहा है,भीतरिया खचड़ा है और फिर पुचकारने लग जाती। रक्षाबंधन से कहीं ज्यादा आज के दिन दीदी लोगों का प्यार मिलता।
रात में सिर पर रखे दीया के जलने से सुबह तक तेल की धार और बाती की कालिख से दीयाबरनी की शक्ल बिगड़ जाती। वो एकदम से थकी-हारी सी विद्रूप लगने लग जाती। मैं तो अपनी दीयाबरनी की इस शक्ल को देखकर एक-दो बार रोया भी हूं,एक दो-बार इसे दीदी के घरौंदे में रखा भी नहीं है कि खराब न हो जाए। दीदी के घरौंदे में रखने की शर्त होती कि हम इसे मुंह देखने के लिए नहीं रखेंगे,अगर तुम इसे हमारे यहां रखना चाहते हो तो इसके सिर पर के रखे दीयों को जलाना ही होगा। दीयाबरनी को लेकर दीदी और मेरे बीच जो संवाद होते थे,आज वो मेरी शादी को लेकर लड़की चुनने के मामले में मजाक-मजाक में ही सही आ जाते हैं कि सिर्फ शक्ल पर मत चले जाना,थोड़ा घर का काम-काज भी करे। इतना रगड़कर घर से बाहर रहकर पढ़-लिख रहे हो तो कम से कम शादी के बाद तो सुख मिले। दीयाबरनी का दीया जलाएं तो ठीक नहीं तो वो दीदी के लिए सिर्फ डाह की चीज होती। कई घरों में ननद और भोजाई को लेकर ऐेसे ही संबंध हैं।
दीवाली के बाद हम विद्रूप दीयाबरनी को मां के हवाले कर देते। मां उसे लक्ष्मी-गणेश की पुरानी मूर्ति के साथ नदी में प्रवाह कर आती। मैं स्कूल न खुलने के समय तक उदास रहता,प्रेम औऱ संवेदना को लेकर जितने भी भाव उठते वो इस दीयाबरनी के चारो और छल्ले बनकर घिर जाते। फिर निक्की,सुरेखा,साक्षी,प्रियंका की बातों में खो जाता औऱ दीयाबरनी की बात भूल जाता। दीयाबरनी के कोरी रह जाने पर भी पागलों-सा उसे अपने साथ लिए फिरता और दिनभर में दस बार हाथ से फिसलने से थोड़ी सी नाक-थोड़ा चेहरा टूट जाता। दीदी लोग मजे लेती- क्या छोटू,बहुरिया का नाक-मुंह काहे तोड़ दिए हो,एकदम से और साथ की सहेलियों के साथ जोर से ठहाके लगाती। मैं उससे बहुत छोटा होने की वजह से कुछ भी नहीं समझ पाता।
शुरुआती दौर में मां जो दीयाबरनी लाती वो अब के मिलनेवाली दीयाबरनियों से अलग होता। उसकी चुनरी का रंग अलग होता,ब्लॉउज का अलग,चेहरा ऐसा कि एक बार देख लें तो किस करने का मन करे,बहुत छोटी-सी बिंदी,बहुत ही सलोना सा मुखड़ा। अब खुशी के लिए जो दीयाबरनी लाती है,वो उपर से लेकर नीचे तक एक ही रंग की होती है-पूरी गुलाबी,पूरी लाल,पूरी पीली या फिर पूरी स्लेटी रंग की। इक्का-दुक्का मिल जाए कई रंगों में तो अलग बात है। आज की दीयाबरनियों को देखकर लगता है कि बाजार के दबाब में,हड़बड़ी में,मिट्टी के लोंदे को उठाकर एक रंग में रंग दिया गया हो,कोई यूनिकनेस नहीं,आत्मिक रुप से कोई जुड़ाव नहीं बनता और जिसे देखकर अब के लौंडे बौराएंगे क्या सात साल के अंकुर ने कहा कि ये मेरी मौसी है। ये अलग बात है कि इसी दीयाबरनी को याद करते हुए आज मैंने फेसबुक पर लिखा- दीवाली के दिन मां मेरे लिए दीयाबरनी खरीदती। मिट्टी की बनी बहुत ही सुंदर लड़की जिसके सिर पर तीन दीए होते। रात में तेल भरकर उन दीयों को जलाते। मां उसे अपनी बहू की तरह ट्रीट करती,ऐसे में कोई उसे छू भी देता तो मार हो जाती। लड़कियों से प्यार करने की आदत वहीं से पड़ी।..
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post.html?showComment=1255769334957#c1754797489884246025'> 17 अक्तूबर 2009 को 2:18 pm बजे
विनीत तुमने पुरानी यादों को ताजा कर दिया. हमलोग मुजफ्फरपुर में दीयाबरनी को घरकुंडा कहते हैं. थोडा सा हमारे यहाँ अलग तरह से मनाया जाता है. मुझे यह बेहद पसंद है. बचपन में हमलोग दीदी के साथ मिलकर कई दिन पहले से मिटटी का घरकुंडा बनाने में लग जाते थे, हमलोग लकडी और थर्माकॉल का प्रयोग घर कुंडा बनाने में नहीं करते थे. होड़ लगी रहती की कैसे दूसरे से बड़ा और अच्छा घर कुंडा बने. दो तल्ला और कभी - कभी तीन तल्ला घर कुंडा. सूखने के बाद उसकी डेंटिंग - पेंटिंग और फिर सजावट. दीपावली के दिन घर कुंडा में दीपक तो जलाया जाता ही है. साथ ही छोटे - छोटे मिटटी के बर्तन में मुढी,और भूंजा , बताशे के साथ रखा जाता है. लक्ष्मी पूजन के बाद वह बताशा और भूंजा भाई को खाने को मिलता है. लेकिन उसके पहले गीत गाया जाता है. अब लग रहा है जैसे सब लुप्त हो रहा है. आज तुमने याद नहीं करवाया होता तो शायद घर कुंडा या दियाबरनी जैसी चीजों की याद भी नहीं आता.
पुष्कर पुष्प
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post.html?showComment=1255771825045#c3721601269661479467'> 17 अक्तूबर 2009 को 3:00 pm बजे
भैया, आज एक बात बता दूं कि अपना बचपन कायदे से हॉस्टल में गिरवी रख दिया गया था. जब तक मुज़फ़्फ़रपुर लौटना हुआ दीदी ने घरौंदे बनाने छोड़ दिए थे. हां, अपन तो दवाई के कार्टन (जिसे हाल-हाल तक कार्टून कहते थे) में लक्ष्मी-गणेश के लिए मंदिर बनाते रहे और उसे ही बिजली के रंग-बिरंगे बल्बों से सज़ाते रहे.
इस साल अच्छा ये लग रहा है कि माताजी संयोग से यहीं हैं, खीर और दाल भरी पुड़ी सालों बाद मिलेगी. भाई, आसपास के दोस्तों को न्यौता है रात के भोजन का. सब कोने आउ, जौर भोजन कएल जाएत.
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post.html?showComment=1255774312670#c1174347182757514546'> 17 अक्तूबर 2009 को 3:41 pm बजे
बहुत सुंदर विनीत। वो तो बचपन के खेल थे। अब असली वाली दियाबरनी कब ला रहे हो। और हां, ये लड़कियों से प्यार करने की आदत ठीक नहीं है। सिर्फ लड़की से प्यार करो। एक लड़की से। समझे... लखैरा....:)
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post.html?showComment=1255794408499#c1016831824627084051'> 17 अक्तूबर 2009 को 9:16 pm बजे
बहुत बढ़िया...दियाबरनी की याद हो आई बचपन की.
सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!
सादर
-समीर लाल 'समीर'
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post.html?showComment=1255797817083#c7072250451685387752'> 17 अक्तूबर 2009 को 10:13 pm बजे
अच्छा लगा आपकी बचपन की कहानी सुनकर ..कभी कभी सोंचती हूँ हर लड़की दिया बरनी सी ही होती है जो दूसरी सुबह निस्तेज हो जाती है रौशनी फैलाकर ..उनके लिए कोई नही रोता है.
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post.html?showComment=1255802660983#c337724502802085040'> 17 अक्तूबर 2009 को 11:34 pm बजे
क्या जबरदस्त लेखन है ! सलाम !
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post.html?showComment=1255891037111#c7761706942516369053'> 19 अक्तूबर 2009 को 12:07 am बजे
accha sansmaran..
मनीषा पांडे said...और हां, ये लड़कियों से प्यार करने की आदत ठीक नहीं है। सिर्फ लड़की से प्यार करो।..
manisha ji ki baat se sahmat.. :P
waise hamne bhi 16 diwali ghar par (samastipur) hi manai hai... deeyabarani kabhi nahi dekha..
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post.html?showComment=1255902609193#c5564150443679156142'> 19 अक्तूबर 2009 को 3:20 am बजे
हमे भी दियाबरनी की याद है छोटू -शरद कोकास
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post.html?showComment=1255934883267#c9143539095104158675'> 19 अक्तूबर 2009 को 12:18 pm बजे
दियाबरनी की बचपन की यादें हमारी शेष हैं जिन्हें आपने फ़िर कुसुमित कर दिया।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post.html?showComment=1255958360957#c3693674577255962894'> 19 अक्तूबर 2009 को 6:49 pm बजे
ये तुम्हारी दीयाबरनी तो गजब है विनीत, वैसे सच कहें तो हमारी तरफ ये रिवाज नहीं होता, लेकिन तुम्हारा पोस्ट पढ़कर पता चल ही गया, क्या होगी ये दियाबरनी जिसने तुम्हें प्यार करना सिखा दिया :-)
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post.html?showComment=1255959701693#c6727651651277545836'> 19 अक्तूबर 2009 को 7:11 pm बजे
दियाबरनी का रिवाज़ तो हमारे यहाँ नहीं था ..पर बचपन में घरौंदे हमने खूब बनाए हैं...कॉलेज में आ जाने के बाद,घरौंदे बनाना छोड़ देने के बाद भी हमारी बड़ी डिमांड थी,आस पड़ोस की छोटी छोटी लडकियां घरौंदे बनवाने ले जातीं और उनकी मम्मियां मेरे लिए बढ़िया बढ़िया नाश्ता बनातीं....आज महानगर में रहने वाले बच्चों को एक्सप्लेन भी करूँ तो वे समझ नहीं पाते....
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post.html?showComment=1256206317534#c4543526173891935881'> 22 अक्तूबर 2009 को 3:41 pm बजे
ये रिवाज तो हमारे यंहा नहीं होता था पर आपके पोस्ट ने पुरानी यादो को फिर से ताजा कर दिया जैसे की दीयो का तराजू बनाना और भी बहुत सारी बाते ,इस सुन्दर सी पोस्ट के लिए आप को बहुत बहुत साधुवाद|
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post.html?showComment=1368018904856#c6115231880323586568'> 8 मई 2013 को 6:45 pm बजे
लाजवाब लेखन पर सूर सलाम | बहुत उम्दा प्रस्तुतीकरण |
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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