ब्लॉग-विमर्श के लिहाज से पहले दिन के मुकाबले दूसरे दिन के सत्र ज्यादा कारगार साबित हुए। इसकी एक वजह तो समय से सत्र का शुरु होना रहा,अधिक वक्ताओं के विचार आए। इसके साथ ही तकनीकी सत्र में जिस बारीकी से रविरतलामी, मसिजीवी, ज्ञानदत्त पांडेय और संजय तिवारी ने सूचना,तकनीक औऱ अभिव्यक्ति के बीच के अन्तर्संबंधों को बताया वो नॉन-ब्लॉगरों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण रहे। लेकिन पहले दिन वक्ताओं को बोलने देने में जितनी दरियादिली दिखायी गयी अगले दिन उसकी गाज भाषा,साहित्य और संप्रेषणियता के सवाल पर बोलने आए वक्ताओं पर गिरी। जाहिर तौर पर उसका शिकार मैं भी हुआ। विश्वविद्यालय की ओर से जो न्योता हमें भेजा गया था उसमें ये साफ तौर पर लिखा था कि आप जो भी बातचीत करेंगे उसे प्रकाशित किया जाएगा इसलिए हमनें अपने स्तर से बीस मिनट बोलने के लिहाज से तैयारी की थी जबकि हमें पांच मिनट,सात मिनट के भीतर,गहरे दबाबों के बीच अपनी बात खत्म करनी पड़ी। मैंने तो फिर भी पांच मिनट के निर्धारित समय होने पर भी हील-हुज्जत करके ढाई मिनट आगे तक जारी रहा लेकिन बाद के वक्ताओं से कहा गया कि आप एक-एक मिनट में अपनी बात रखें। दिल्ली से चलते हुए सोचकर ही कितना अच्छा लग रहा था कि हम देश में पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होनेवाली चिट्ठाकारी संगोष्ठी में विमर्श करने जा रहे हैं जिसे कि पाठ के रुप में तैयार किया जाएगा लेकिन आप समझ सकते हैं कि बोलते वक्त हमने ऐसा महसूस किया कि खून,पेशाब,थूक और खखार की तरह यहां अपने विचारों की सैम्पलिंग भर देने आए हैं। वहां मौजूद कुछ लोगों ने ये तर्क दिया कि जब आप पांच मिनट में पढ़नेवाली पोस्ट लिख सकते हैं तो फिर अपनी बात क्यों नहीं रख सकते। पांच मिनट ही क्यों भई,टेलीविजन के हिसाब से सोचें तो 25-30 सेकेंड काफी हैं,इससे ज्यादा की बाइट तो चलती भी नहीं। लेकिन क्या चिट्ठाकारी को जब हम विमर्श और अकादमिक दुनिया में शामिल कर रहे हैं तो उसे निपटाने के अंदाज में ही बात करनी होगी। अब बिडंबना देखिए कि रियाजउल हक जैसा गंभीर ब्लॉगर वक्ता जब ये कह रहा है कि आप हिन्दी ब्लॉग्स पर नजर डालें तो कहीं से इस बात का अंदाजा नहीं लगेगा कि ये उसी देश की अभिव्यक्ति है जहां हजारों किसानों ने कर्ज के बोझ से आत्महत्या कर ली,दलित समाज का एक तबका आज भी पचास साल पहले के भारत में जीने के लिए अभिशप्त है। हिन्दी ब्लॉगिंग करते हुए जो खतरे हमें उठाने चाहिए,अभी तक हम नहीं उठा रहे हैं और उसके बाद वो पूरी बातचीत को सामाजिक सरोकार और प्रतिबद्ध लेखन की ओर मोड़ना चाह रहे थे,महज दो मिनट के भीतर उन्हे दबाब में आकर बात खत्म करनी पड़ गयी लेकिन वही दूसरे सत्र में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी प्रोफेसर राजेन्द्र कुमार इस बात की घोषणा करते हुए भी कि उन्हें ब्लॉग के बारे में कुछ भी नहीं पता है,करीब पच्चीस मिनट तक बोल गए। इस पच्चीस मिनट में ऐसा कुछ भी नहीं था जो कि ब्लॉग को लेकर चलनेवाली बहस को आगे ले जाता हो,विमर्श के दायरे का विस्तार करता हो,वही सब जिम्मेदारी का एहसास,लेखन में विवेक का प्रयोग और दुनियाभर के नैतिक आग्रह जिसकी चर्चा पहले दिन ही विस्तार से की गयी। ब्लॉगरों की भाषा में इसे नामवर सिंह की पायरेसी करार दिया गया। औपचारिकता,हिन्दी साहित्य-समाज से आक्रांत दोनों दिनों की इस संगोष्ठी ने ब्लॉग विमर्श के स्पेस को बहुत ही संकुचित कर दिया। हमें बार-बार इस बात का एहसास कराया गया कि हम हिन्दी साहित्य-समाज के लोगों के बीच रहकर अपनी बात कर रहे हैं तभी तो कुलपति,विभागाध्यक्ष से लेकर एमए तक के स्टूडेंट ने हमें आगाह किया कि आप अनुशासित बनिए। संतोष नाम के एक स्टूडेंट ने जब मुझे मंच से अनुशासित होने और धैर्य से दस मिनट नहीं बैठने लायक करार दिया तो हमें इस बात का यकीन हो गया कि आनेवाले समय में हिन्दी साहित्य से जुड़ी संस्थाएं और विभाग अगर चिट्ठाकारी पर किसी भी तरह का आयोजन करती है तो इसका बंटाधार कर देगी। मैंने उन्हें बस इतना ही कि हम यहां योग और साधना शिविर में नहीं आएं हैं कि हिलना-डुलना बंद कर दें,हम विचलन की स्थिति में जी रहे हैं और उन्हीं सबके बीच अपनी बात रखनी है। हिन्दी समाज में चिट्ठाकारी को साहित्यिक मापदंड़ों के खांचे में फिट करने की इतनी अधिक छटपटाहट है कि वो ब्लॉग की तकनीकी, सुविधाओं, शर्तों और शैलियों को उसी रुप में अपनाए जाने के वाबजूद जिस रुप में दुनिया अपना रही है महज ब्लॉग की जगह चिट्ठाकारी शब्द प्रयोग कर थै-थै नाच रहे हैं। नामवर सिंह इस शब्द के प्रयोग को एतिहासिक करार देते हुए इसका श्रेय म.गां.अं.विश्वविद्यालय को देते हैं। हमें तो ब्लॉग के बजाए चिट्ठाकारी टाइप करने में असुविधा हो रही है। आते समय डेस्क पर पड़ी एक रिपोर्ट पर नजर गयी,शीर्षक था- चिट्ठाकारी से साहित्य को कोई खतरा नहीं। अब बताइए चिट्ठाकारी को साहित्य के बरक्स खड़ी करने की क्यों जरुरत पड़ गयी? इस पर गंभीरता से चर्चा की जानी चाहिए। बहरहाल
दूसरे दिन के पहले सत्र चिट्ठाकारीः भाषा और साहित्य के सवाल पर प्रथम वक्ता के तौर पर मसिजीवी नाम से मशहूर ब्लॉगर विजेन्द्र सिंह चौहान ने अपनी बात रखी। उन्होंने स्पष्ट किया कि कई बार हमें लगता है कि चिट्ठाकारी की बिल्कुल कोई नयी और अलग भाषा है। लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? ये उसी रुप में नयी है जिस रुप में ये हंस में नहीं आती,कथादेश में नहीं आती,साहित्य की किताबों में नहीं आता। लेकिन गंभीरता से विचार करें तो ब्लॉग की कोई नयी भाषा नहीं है। ये बोली जानेवाली भाषा,कई अलग-अलग जगहों पर बोली जानेवाली भाषा का ही रुप है। इसलिए भाषा के सवाल पर हमें इस लिहाज से भी सोचना होगा। उन्होंने कहा कि हम चिट्ठाकारी में टाइप करते हुए छोटी-मोटी गलतियां करते हैं लेकिन ये कोई बड़ी बात नहीं है। हां,दिक्कत तब है जब हम इस पर गर्व करने लग जाते हैं। मसिजीवी ने 2.0 भाषा फार्मूले के हिसाब को भी समझना जरुरी बताया।
गिरिजेश राव ने स्पष्ट किया कि मैं साहित्य से नहीं हूं,पेशे से इंजीनियर हूं लेकिन मैं जुनूनी तौर पर चिट्ठाकारिता से जुड़ा हूं। मेरे जैसे कई लोग जिनका कि साहित्य से कुछ भी लेना-देना नहीं है वो भी ये काम कर रहे हैं। इसलिए सवाल ये है कि क्या ब्लॉगिंग पर जब हम बात कर रहे हैं तो उन तथ्यों को ध्यान में नहीं रखा जाना चाहिए। ब्लॉगरी को सर्व समावेशी है जहाँ सबके लिए जगह है।
(2) ब्लॉगरी और साहित्य के विवाद को बेमानी बताया । ब्लॉगरी अभिव्यक्ति का एक माध्यम है जिससे साहित्य भी कहा जा सकता है।
(3) हिन्दी की जातीयता के कारण भाषा स्रोत के रूप में मैंने संस्कृत की महत्ता बताई। अंग्रेजी को भी स्वीकारा।
(4) आम जीवन से ही शब्दों को लेकर बात कहने की वकालत की - टेलीफोन धुन में हँसने वाली....
(5) एस एम एस भाषा की बात भी की ।
(6) ब्लॉगरी के भीतर से ही इसकी भाषा विकसित होने की बात की । खड़ी बोली से हिन्दी बनने में महावीर प्रसाद द्विवेदी के योगदान की बात की । यह भी कहा कि अब कोई द्विवेदी ब्लॉगरी के लिए नहीं होगा, हमें खुद अनुशासन रखते हुए विकसित होना होगा... महावीर प्रसाद के नाम लेने पर बाद में कुछ जुमले भी आए ।
हिमांशु को चिट्ठाकारी में कविता और उसकी भाषा के संदर्भ में बातचीत करने के लिए आमंत्रित किया गया। उन्होंने चिट्ठाकारी पर मौजूद कविताओं का पाठ भी किया लेकिन मनीषा पांडेय के ये कहे जाने पर कि आप अपनी बात कीजिए,सिर्फ कविता क्यों सुना रहे हैं तो उन्होंने कहा कि मैं अभी इसे समझ ही रहा हूं इसलिए सीधे-सीधे इस पर बात नहीं कर सकता। मनीषा को उनका ये नॉनसीरियस रवैया पसंद नहीं आया। ये अलग बात है कि अंत तक हिमांशु का कविता सुनाना जारी रहा।
वक्ता के तौर पर चिट्ठाकारीः भाषा और संप्रेषणीयता के सवाल पर मुझे बोलने के लिए बुलाया गया। भाषा पर बातचीत करने के पहले मैंने स्पष्ट करने की कोशिश की कि- मैं हिन्दी चिट्ठाकारी को बनाम की जुमलेबाजी से अलग करके देखना चाहता हूं। मैं न तो इसे साहित्य बनाम ब्लॉग,न तो मीडिया बनाम ब्लॉग और न ही समाज सेवा बनाम ब्लॉग के तौर पर देख रहा हूं। मैं इसे इसी रुप में देख रहा हूं जिस रुप में देख रहा हूं। हिमांश का इस संबंध में मानना रहा कि मैं अलग से ब्लॉग को नहीं लेता। अगर वो कहीं छप गयी तो कविता है,कहानी है,नहीं छपी है,नेट पर है तो वही पोस्ट है। दूसरी बात जो कि मुझे लगी वो ये कि हमें हिन्दी चिट्ठाकारी पर बात करते हुए संदर्भों की तलाश करनी चाहिए। सिर्फ सतहीपन,अनर्गल और कुंठासुर जैसे सरलीकृत नजरिए को पेश करके हम इस पर बात नहीं कर सकते। दूसरे दिन में अब तक की बहस पर स्त्री के सवालों पर लिखी जानेवाली पोस्टों पर किसी ने कुछ नहीं कहा। रियाजउल,अशोक पांडेय,गिरीन्द्र,राकेश कुमार सिंह जैसे लोग समाज औऱ सरोकार पर जो कुछ भी लिख रहे हैं,उसकी कहीं कोई चर्चा नहीं की गयी। ऐसा न किया जाना भी एक राजनीति का हिस्सा हो सकता है। संभव है इस तरह के आयोजन हमारे भीतर एक लोभ पैदा करते हों कि आप अगर चीजों को एक खास संदर्भ में देखते हैं तो आपके पक्ष में कई संभावनाएं हैं। आज ब्लॉगिंग ने मीडिया औऱ टेलीविजन आलोचना के लिए जितना बड़ा स्पेस तैयार किया है उतना शायद ही अखबारों औऱ किताबों के जरिए हुआ होगा। रवीश कुमार इस पेशे से जुड़कर भी मीडिया और टेलीविजन की सीमा औऱ संभावनाओं पर लगातार बात कर रहे हैं,उन्हें टीवी अखबार लगने लगा है। बड़े स्तर पर नास्टॉलजिक राइटिंग की जा रही है,स्ट्रैटजी के साथ लेखन किया जा रहा है, रविरतलामी जैसे लोग भाषा-प्रौद्योगिकी का पाठ तैयार कर रहे हैं,उस पर आप बात ही नहीं कर रहे। हमें भाषा को इसी सिरे से पकड़ने की जरुरत है कि इन संदर्भों के बीच ब्लॉग की भाषा किस रुप में निर्मित हो रही है?
साइंस की भाषा पर बात करने के लिए अरविंद मिश्रा को आमंत्रित किया गया है। उऩके बारे में फुरसतिया ने लिखा कि-अरविन्दजी ने अपने ब्लाग का प्रचार किया केवल कि हमारे साइंस ब्लाग में ये किया जा रहा है, वो किया जा रहा है। मैं फुरसतिया के'प्रचार'शब्द से असहमति जताते हुए कहूंगा कि अरविंदमिश्रा ने ये बात विस्तार से बताने की कोशिश की कि विज्ञान की दुनिया में जो कुछ भी नया चल रहा है हिन्दी में वो साइंस ब्लॉग में मौजूद है। ये बात काफी हद तक सही भी है कि हिन्दी में साइंस पर का लेखन बहुत कम दिखाई देते हैं। हां इस लेखन की चर्चा करते हुए अरविंद मिश्रा ने बाकी ब्लॉगरों के नाम लेने के वाबजूद लगभग सारे उदाहरण अपने साइंस ब्लॉग से दिए। गिरिजेश राव बोल रहे थे कि मैं अपने खोए हुए रिकार्डर की ताकीद में ऑफिस के लोगों से बीतचीत में उलझ गया और वापस आने पर संतोष की ओर से मेरे लिए की गयी व्यक्तिगत टिप्पणी को लेकर उत्तेजित औऱ परेशान हो गया। विपिन की बात को मैं सुन नहीं पाया इसके लिए माफ करेंगे। आप वहां मौजूद ब्लॉगरों से अपील है कि इनके साथ जो छूट गए हैं उनकी बात कमेंट कर दें ताकि हम उन्हें भी पोस्ट में शामिल कर सकें। इस पूरे सत्र की अध्यक्षता प्रियंकर पालीवाल ने की और पूरे सत्र तक जमे रहे जबकि इरफान ने मंच संचालन करते हुए,अपनी खूबसूरत आवाज से हमारे भीतर चल रहे उठापटक को लगातार संतुलित करने का काम किया।
भोजन अवकाश के बाद गांव को लेकर एक किस्म की जो फैंटेसी शहर के लोगों के बीच होती है और शहरी मानसिकता पनपनी शुरु होती है,इस गंभीर सच की थीम पर बनी फिल्म सरपत की स्क्रीनिंग की गयी। अभय तिवारी ने इस फिल्म के जरिए गांव को एक परिभाषा में बदल दिए जाने की कवायद को शिद्दत के साथ देखने की कोशिश की है। 18 मिनट की इस फिल्म के दिखाए जाने के बाद चिट्ठाकारीः तकनीकी पक्ष का सत्र शुरु होता है।
दोनों दिनों के कुल सत्रों को अगर हम मिलाकर तुलना करें तो ये सबसे ज्यादा गंभीर सत्र रहा। ये अलग बात है कि इस सत्र के हिस्से मैं मैं स्वयं 15 मिनट के लिए एजी ऑफिस के पास जूस पीने चला गया,यशवंत सिविल लाइन्स के लिए रिक्शा खोजने निकले,मनीषा चायवाले बाबा के साथ कटबहसी कर रही थी,इरफान मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया,सेमिनार की थकान,धुएं में उड़ाता गया के अंदाज में बाहर दिखे, मेरी ओर से मनीषा को दी गयी किताब भूपेन को इतनी जरुरी लगी कि बाहर फोटोकॉपी की मशीन ढूंढने में व्यस्त नजर आए,अविनाश देखते ही देखते अलोप हो गए,समरेन्द्र मामू लोग से मिलने निकल पड़े। ब्लॉगरों ने इस सत्र को ट्यूटोरियल क्लास की तरह लिया,मनो हो तो रहो नहीं तो निकल लो। लेकिन जूस पीने के बाद जब मैं अंदर आकर बैठा तो महसूस किया कि चिट्ठाकारी के नाम पर जो हम बौद्धिक बहसें कर रहे हैं,अपनी बौद्धिकता झाड़ रहे हैं,उन सबसे हटकर हम ब्लॉगरों को एक साल तक लगातार देश के अलग-अलग हिस्सों में जाकर ब्लॉग-शिविर लगाने चाहिए। क्योंकि ब्लॉगरों के नदारद होने के वाबजूद भी इस सत्र में कुर्सी लगभग भरी हुई थी। लोग चीजों को गौर से सुन रहे थे और नहीं समझ में आने पर सवाल भी कर रहे थे। हां ऐसे मौके पर अफलातून जो कि हमारे हीरो करार दिए गए,थोड़ा उन्हें बर्दाश्त करना चाहिए था और तकनीकी मसले के बीच में भावुक प्रसंग छेड़ने से अपने को रोकना चाहिए था। मंच से उनका रोना हमें अचानक से दूसरी दुनिया की तरफ खींच ले गया और मन भारी हो गया। खैर,
इस सत्र में रविरतलामी ने यूनीकोड को लेकर विस्तार से बताया,फांट को लेकर सुझाव दिए और हमें हिन्दी की वर्तनी को किस तरह से चेक करें,दिल्ली में उस सॉफ्टवेयर को कहां से खरीदें,ये सबकुछ बताया। ज्ञानदत्त पांडेय ने ब्लॉगिंग में समय प्रबंधन के महत्व और उसके तरीके को सटीक तौर पर बताया। मसिजीवी के लिखने औप पढ़ने के बीच के समय-अनुपात को समझाया। मसिजीवी ने स्टेप वाइज स्टेप ब्लॉग बनाने,नियंत्रित किए जाने और उसे जिंदा रखने के तरीकों पर चर्चा की और डेमो के जरिए इसे प्रयोग करके बताया। इस सत्र में संजय तिवारी की ओर से इंटरनेट के चालीस साल होने और उसके विविध पड़ावों से गुजरने की घटना को गंभीरता से देखने-समझने को अनिवार्य बताया। संजय तिवारी ने यह कहते हुए कि हम बुरे दौर से गुजर रहे हैं जिसे कि इन्होंने पहले सत्र में भी कहा था इसके विकल्पों की तलाश करने की प्रक्रिया पर भी अपनी बात रखी। एक ब्लॉग के बना लेने के बाद हम तीसमार खां नहीं हो जाते,हमें इंटरनेट की दुनिया को बारीकी से समझने की जरुरत है,संजय तिवारी की बात से ये पक्ष बार-बार उभरकर सामने आया। ब्लॉग-तकनीक से जुड़े करीब 8 सवालों(मेरी मौजूदगी में)के पूछे जाने और वक्ताओं की ओर से विस्तार से चर्चा किए जाने के बाद सत्र समाप्ति की औपचारिक घोषणा की जाती है। उसके बाद हिन्दी के प्रोफेसर राजेन्द्र कुमार फिर से उन सारे हिदायतों को दोहराते हैं जिसे कि नामवर सिंह ने उद्घाटन सत्र के दौरान हमें दिए थे। यहां मुझे नब्बे साल से पंडितजी नाम से मशहूर उस गोलगप्पा और चाट खिलानेवाले बाबा की याद आ जाती है,जब मैंने पांच गोलगप्पे खाने के बाद पूछा कि हो गया बाबा? बाबा ने जबाब दिया था कि जहां से शुरु किए हैं वहीं से खत्म करेंगे न बेटा। उन्होंने खट्टे पानी से खिलाना शुरु किया था,बीच में मीठा पानी,फिर घुघनी भरके,फिर दही डालकर..मैंने तभी सवाल किया था और उन्होंने वापस खट्टे पानी पर लौटने की बात की थी।
दूसरे सत्र की समाप्ति के बाद हम ब्लॉगरों को स्मृति चिन्ह और प्रशस्ति पत्र लेने के लिए बारी-बारी से मंच पर बुलाया गया। इस कार्यक्रम के सह-संयोजक सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने एक बार फिर से हम ब्लॉगरों के बारे में परिचय दिया। ये परिचय ब्लॉग और लिंक के परिचय से अलग था। इन दोनों के भीतर जो भी अपनी पहचान बनी थी,उससे लोगों को अवगत कराया। हमने अपनी-अपनी कमाई बटोरी और कार्यक्रम खत्म होने की घोषणा के साथ ही बाहर आए।
बाहर आकर एक अजीब किस्म की भावुकता से मैं भर गया। लग रहा था कि पता नहीं अब कब किससे मिलना हो। रवि रतलामी के साथ तस्वीर खींचावाने की इच्छा थी जो कि मैंने उन्हें पहले से ही जता दी थी। उनकी गाड़ी स्टार्ट हो चुकी थी,मुझे देखकर उन्हें मेरी बात याद आ गयी और एक-एक करके सब उतर गए। बांह में भरकर उन्होंने तस्वीर खिंचायी...और फिर सबों ने साथ-साथ। फिर विदा हुए।
इधर ब्लॉगरों की एक गैंग सीनेट हॉल में होनेवाले मुशायरे में घुसपैठ के लिए बेताब नजर आया। हम भी उनके साथ हो लिए। साढ़े नौ बजे प्रयागराज से लौटना था..लेकिन अभी छ ही बजे थे। रास्ते में मसिजीवी इस बात पर अफसोस कर रहे थे कि एक दिन और क्यों रुकना पड़ गया और मैं अफसोस कर रहा था कि मैं क्यो नहीं रुक गया? कल को कोई पूछे कि इलाहाबाद में क्या देखा तो कुछ भी नहीं बता पाउंगा।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय देखकर आंखें चौंधिया गयी। मसिजीवी ने मेरी तस्वीरें लीं। फिर अंदर दाखिल हुए। मुशायरा शुरु हो चला था। नजर के सामने नाचता रिकार्डर,लोगों से अलग होने पर एक बाजिब किस्म की भावुकता और लंबी थकान के बीच मुशायरे ने मुझ पर कोई असर नहीं किया। मन उचट गया। उधर से अविनाश और यश मालवीय भी बाहर जाते दिखे। उन्होंने भी कहा कि मजा नहीं आया चट गए। मैंने कहा- चट गए हैं तो क्यों न फिर चाट खाने चलें। अजय ब्रह्मात्मज ने कहा था कि इलाहाबाद में चाट जरुर खाना। बिना हैलमेट के यश भाई की बाइक पर हम दोनों लग गए। नब्बे साल की पुरानी पंडितजी की चाट दूकान पहुंचने तक यश भाई की कविताओं और हाथ लहरा-लहराकर गीत गाने का सिलसिला जारी रहा- पिंजरा में देखो बोले,राम नाम टुइयां
शहरों से भलो हमरो गांव मोरी गुइयां..
चाट खाने के बाद हम मस्त हो गए फिर विश्राम होटल तक यश भाई और उनके गीतों के साथ। होटल पहुंचने पर एक घंटे के लिए क्या शुरु किया जाए..सुनने-सुनाने का दौर? लेकिन ऐसे ही सूखा-सूखी। यश भाई ने कहा कि आपलोग यात्रा पर जा रहे हैं,आचमन करना ठीक नहीं होगा। लेकिन बीयर तो चल ही सकती है इस संकल्प के साथ..हेस्टी-टेस्टी पर धावा। आधा से ज्यादा चखना मैं ही खा गया,अदने एक सेवेन अप को पचाने के लिए। बाहर आकर यश भाई को भाभी का हवाला देकर हम उन्हें विदा होने की बात करते हैं,वो हमें स्टेशन तक छोड़ने की जिद करते हैं। फिर कई कविताओं के टुकड़े एक के बाद एक। वो कहते हैं-दुनिया पैसे कमाती है,हम कहते हैं आदमी कमाते हैं।..उनसे विदा होते वक्त मेरी आंखों के कोर भींग जाते हैं।
वापस आकर दस मिनट के भीतर समान समेटते हैं,समरेन्द्र भाई के दोस्त की गाड़ी पर लदते हैं और फिर इलाहाबाद स्टेशन। तीन थाली पैक कराकर फिर प्रयागराज के भीतर। बातचीत का दौर,आसपास की लड़कियों से थोड़ा भी सट जाने पर टोका-टोकी का दौर शुरु। हम बातें करना चाहते हैं लोग सोना चाहते हैं। हम ठहाके लगाना चाहते हैं,वो खर्राटे लगाने लग जाते हैं। हम तीनों ट्वॉयलेट के पास खड़े होकर देर रात तक बातें करते हैं। रेलवे के कर्मचारी के साथ गप्पें मारते हैं और फिर वापस आकर अपने-अपने बिस्तर में दुबक जाते हैं।
अपने हॉस्टल के कमरे के सामने पांच अखबार पड़े हैं। ओह..आज तो संडे है,तभी तो पांच अखबार। इन चार दिनों में दिल्ली में क्या हुआ,नहीं मालूम,हॉस्टल में क्या हुआ नहीं पता..तब से लेकर अब तक तो इस पोस्ट को लेकर ही भिड़ा रहा।..पुरानी दुनिया में वापस।।।..आगे ब्लॉगिंग की दुनिया में इस संगोष्ठी से निकलकर आए सवालों पर विमर्श जारी रहेगा।
डिस्क्लेमर- ये रिपोर्ट पूरी तरह स्मृति पर आधारित हैं। नोट की गयी फाइल अचानक सिस्टम के बंद हो जाने से सेव नहीं हो पायी। ऐसे में जरुरी नहीं कि वक्ता के शब्दशः प्रयोग यहां पर मौजूद हों लेकिन कोशिश है उन संदर्भों और भावों की जो कि वो व्यक्त करना चाह रहे थे। वाबजूद इसके अगर कहीं कोई गलती और अलग अर्थ प्रेषित हो रहे हों तो आप सबसे,खासकर वहां मौजूद ब्लॉगरों से अनुरोध है कि आप कमेंट करें जिसे पढ़कर हम तत्काल दुरुस्त कर देंगे।
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256461665611#c3640269908011564969'> 25 अक्तूबर 2009 को 2:37 pm बजे
शुक्रिया, अच्छा लगा संस्मरण रूप रपट पढ़कर। मुझे रवि रतलामी की बातों में अधिक रूचि है। गुजारिश है कि आप इस पर और भी जानकारी दें।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256463595368#c408847089550205034'> 25 अक्तूबर 2009 को 3:09 pm बजे
अच्छा लगा आपकी रिपोर्टिंग पढ़ कर ...कई बार मुस्कराहट तिर आई ओठों पर.
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256463836326#c7191253254831343051'> 25 अक्तूबर 2009 को 3:13 pm बजे
सम्मेलन की सही सच्ची रिपोर्टिंग सिर्फ आप ने की। पर जो कुछ भी हुआ वह न होने से अच्छा था। बड़ा आयोजन था इस लिए कहूँगा बड़ा अच्छा हुआ। केवल ब्लागरी पर बात करने वाले सम्मेलन होने में कुछ बरस और लगेंगे। हिन्दी ब्लागिंग अभी तो आकार ही ले रही है। अभी तो इस के अनेक रंग आने बाकी हैं। ब्लागरी की बागडोर ब्लागरों के हाथों में है। वह अभी बहुत निखरेगी। जीवन में जितने भी रंग मौजूद हैं वे सब ब्लागरी में निखरेंगे।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256464078903#c6888097309237521188'> 25 अक्तूबर 2009 को 3:17 pm बजे
बढिया रिपोर्टिग की है।आभार।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256465886671#c5154764998354969419'> 25 अक्तूबर 2009 को 3:48 pm बजे
अच्छा विवरण है।
अरे विनीत ये तो बताओ कि वहॉं अपनी दिल्ली ठीक ठाक है न :)
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256466434587#c928699364577137861'> 25 अक्तूबर 2009 को 3:57 pm बजे
जी सरजी,कह नहीं सकता। अभी तक तो बुरुश भी नहीं किया है। पहले मुंह-हाथ धो लूं तो फिर निकलता हूं पता करने। आज से आउंटगोइंग बंद हो गयी है इसलिए फोन करके पता भी नहीं कर पाया। हम तो आंधी-बिंडोबा की गति से गए और वापस आ गए,संभव हो तो इलाहाबाद से कुछ पैक करा लीजिएगा...
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256467721040#c4863661149387582922'> 25 अक्तूबर 2009 को 4:18 pm बजे
हिंदी और साहित्य ही नहीं है ब्लॉग जगत , न जाने क्यों लोग ब्लॉग जगत को एक और नया अखाडा बनाना चाहते हैं ?
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256468194230#c1150248345238235720'> 25 अक्तूबर 2009 को 4:26 pm बजे
अरे विनीत भाई ! बहुत कुछ स्मृति पर आधारित है इसलिये और कुछ तो नहीं कहना , हाँ हमारे नॉंन-सीरियस व्यवहार का ठीकरा हिमांशु शेखर पर क्यों फोड़ रहे हैं ।
नॉन-सीरियस तो हम हैं-हिमांशु शेखर नहीं ।
इतना तो सुधार ही लें - हिमांशु शेखर से माफी माँगने के साथ !
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256469856143#c7035925074014307800'> 25 अक्तूबर 2009 को 4:54 pm बजे
बढियां और विस्तृत रिपोर्ट है विनीत जी ! शुक्रिया !
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256471558940#c4779622485874369918'> 25 अक्तूबर 2009 को 5:22 pm बजे
बढिया रपट. दोनों मन कर रहा है; हाय मैं क्यों नहीं गया और न गया तो क्या बिगड़ गया!!
और हां, स्मृति से जो बात लिखी है वो ज़्यादा सटीक लगी.
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256472094091#c590203038536566607'> 25 अक्तूबर 2009 को 5:31 pm बजे
bahut achhe..aankho ke saamne ghoom gaya saara drishya.. :)
Thank you
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256472639194#c1399571697237141611'> 25 अक्तूबर 2009 को 5:40 pm बजे
बड़े श्रम से बनाई विनीत जी अपने ये रपट....
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256473250019#c7729742191728257197'> 25 अक्तूबर 2009 को 5:50 pm बजे
अच्छा लगा पूरी जानकारी पाकर, धन्यवाद.
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256475798716#c6858789695505708493'> 25 अक्तूबर 2009 को 6:33 pm बजे
हिमांश शेखरजी,एक जगह मैंने हिमांशु के बजाय आपका नाम लिख दिया। अब उसे दुरुस्त कर दिया है। गलती के लिए माफी।.
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256476014133#c125243036239935555'> 25 अक्तूबर 2009 को 6:36 pm बजे
बढ़िया सचित्र जानकारी ...
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256476614246#c7070162138818346799'> 25 अक्तूबर 2009 को 6:46 pm बजे
श्याम श्वेत पक्षों को बखूबी पेश किया है ।
"आनेवाले समय में हिन्दी साहित्य से जुड़ी संस्थाएं और विभाग अगर चिट्ठाकारी पर किसी भी तरह का आयोजन करती है तो इसका बंटाधार कर देगी।"
सही बात है ।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256479004534#c8897036207639261734'> 25 अक्तूबर 2009 को 7:26 pm बजे
विनीत भाई,
बहुत उम्दा रिपोर्ट के लिए शुक्रिया. कुछ पहलु जरूर ऐसे हैं जिन पर बात-विचार करना जरूरी होगा. तुम्हारी रिपोर्टिंग बेहद मददगार रहेगी. तुम्हारा तन और मन-दुरुस्त बना रहे, ऐसी कामना.
पंकज पुष्कर
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256479484093#c6592792437670161360'> 25 अक्तूबर 2009 को 7:34 pm बजे
विनीत जी संगोष्ठी की रपट का यह अन्दाज़ हमे भा गया बिलकुल साफ्गोई से ईमानदारी से आपने यह कह दिया कि यह स्मृति पर आधारित है इसलिये शब्दश: होने की ज़िम्मेदारी नही है । एक बात मैं विशेष रूप से यह कहना चाहता हूँ कि संगोष्ठी के प्ररम्भ होने से लेकर अंत तक जितनी प्रतिक्रियाएँ आईं, कार्यक्रम के दौरान जितनी रुचि वहाँ उपस्थित और हम जैसे अनुपस्थित लोगों ने ली , कार्यक्रम का जैसा लाइव प्रस्तुतिकरण आप जैसे लोगो के माध्यम से ब्लॉग्स पर हुआ ,जितनी तस्वीरें हम लोगों ने देखीं ( आपके सौजन्य से इन दुर्लभ तस्वीरों को मिलाकर ) मित्रों से फोन पर और एस एम एस के माध्यम से सम्वाद हुआ , कार्यक्रम के चलते चैट और टाक से जानकारी का आदान-प्रदान हुआ, भोजन आवास के बारे मे चर्चा हुई, मुद्दों पर सीधे सुझाव दिये गये और सम्बन्धित लोगो तक प्रतिक्रियाएँ पहुंचाई गई यह मैने आज तक किसी साहित्यिक,संस्थागत या राजनीतिक कार्यक्रम के आयोजन मे नही देखा । अखबारों मे तीन कालम की खबर और टीवी पर दो मिनट की क्लिपिंग से ज़्यादा आज तक किसी कार्यक्रम को तवज़्ज़ो नही मिली । आयोजन मे मिलने वाले न सिर्फ पहले से परिचित रहे बल्कि उनमे रोज ही सम्वाद होता है । यह सिर्फ और सिर्फ इस ब्लॉगर परिवार के आपसी सम्बन्ध की वज़ह से है और इसे कोई भी महान साहित्यकार ,पत्रकार ,राजनेता या प्रशासनिक अधिकारी नही समझ सकता । मै एक लेखक /कवि हूँ और विगत 20-25 वर्षों से ऐसे आयोजन कार्यक्रम मे भागीदारी कर रहा हूँ । यहाँ जुडे भी एक उल्लेखनीय समय तो हो चुका है इसलिये मै कह सकता हूँ कि यह एक ऐसा समाज है जिसने यह सब अपने श्रम और ज्ञान तथा निरंतरता से अर्जित किया है इसलिये इसकी किसी से तुलना नहीं की जा सकती ।यह् बहुत ज़्यादा निराश भी नहीं होता न बहुत ज़्यादा उत्साहित । हाँ थोडा बहुत भावुक और सम्वेदंशील है लेकिन् इसका संतुलन ही इसकी विशेषता है । हम इसके इसी सकारात्मक पक्ष को क्यों न बढ़ावा दें !!
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256493518507#c2791964542033010702'> 25 अक्तूबर 2009 को 11:28 pm बजे
बढ़िया, बेबाक, विस्तृत रिपोर्ट। मेहनत भी दिखती है रिपोर्ट बनाने में।
आभार आपका।
बी एस पाबला
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256496483102#c6626482094923120597'> 26 अक्तूबर 2009 को 12:18 am बजे
reporting achi rahi
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256526357255#c3955341510558994842'> 26 अक्तूबर 2009 को 8:35 am बजे
ये लो , इ नया तमाशा है . हम तो यहाँ आये थे कुछ और सोच कर ! मतलब ब्लोगिंग की दुनिया में मीडिया का विकल्प ढूंढने निकले थे और ये बड़े बाबा लोग बेच आये इसकी इज्जत सड़े हुए संस्थानों और हिंदी के मठाधीशों के हाथों .
इतना सब कुछ सुनने के आदि नहीं होंगे आप श्रीमान नामवर जैसे लोगों के बारे में .
अब कुछ भ्रम सा होने लगा है . लगता नहीं कि हिंदी वाले साहित्य के ऊपर सोच पाते हैं . ब्लोगिंग भी उसी दायरे में सिमट गयी है . समाज -राजनीति जैसे मुद्दों और उनसे जुड़े ब्लोगरों का नदारद होना बिलकुल ही खेदजनक है .
हिंदी ब्लोगिंग को तो कूडेदान बना रहा है . लोग अपनी अंट-शंट रचनाएँ छाप कर कलेजा ठंढा कर ले रहे है . अरे , भाई समकालीन साहित्यकारों इस बात को सोचो एकाध {उदय प्रकाश आदि } को छोड़ कर कितने साहित्यकारों को पढ़ा जा रहा है ? मेरे बाप ने भी प्रेमचंद को पढ़ा था और मैं भी पढ़ रहा हूँ . इक्कीसवी सदी के हिंदी कलमकार कहाँ हैं ?
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256528973802#c2555410353043937237'> 26 अक्तूबर 2009 को 9:19 am बजे
टिपियाना बस इसलिए कि मेरे वक्तव्य के शब्दों को तो आप ने याद रखा लेकिन वाक्यों और मंतव्य को उलट दिए हैं। बता दूँ:
(1) मैंने ब्लॉगरी को सर्व समावेशी बताया था जहाँ सबके लिए जगह है।
(2) ब्लॉगरी और साहित्य के विवाद को बेमानी बताया था। ब्लॉगरी अभिव्यक्ति का एक माध्यम है जिससे साहित्य भी कहा जा सकता है।
(3) हिन्दी की जातीयता के कारण भाषा स्रोत के रूप में मैंने संस्कृत की महत्ता बताई थी। अंग्रेजी को भी स्वीकारा था।
(4) आम जीवन से ही शब्दों को लेकर बात कहने की वकालत की थी - टेलीफोन धुन में हँसने वाली....
(5) एस एम एस भाषा की बात भी की थी।
(6) ब्लॉगरी के भीतर से ही इसकी भाषा विकसित होने की बात की थी। खड़ी बोली से हिन्दी बनने में महावीर प्रसाद द्विवेदी के योगदान की बात की थी। यह भी कहा था कि अब कोई द्विवेदी ब्लॉगरी के लिए नहीं होगा, हमें खुद अनुशासन रखते हुए विकसित होना होगा... महावीर प्रसाद के नाम लेने पर बाद में कुछ जुमले भी आए थे।
... हाँ मुझे विषय भाषा और ब्लॉगरी का ही दिया गया था। टिपिया इसलिए रहा हूँ कि आप का लिखा मेरे कहे से मेल नहीं खाता। हाँ, इंजीनियर होने और शास्त्रीय चर्चा न कर पाने की बात अवश्य मैंने की थी। यह भी कहा था कि यह पहली बार होगा जब ऐसे प्लेटफॉर्म पर बोलना हो रहा है... अब और नहीं याद आ रहा है। लिखा हुआ नहीं बोला था। गलती हो गई।
____________________
आप, मसिजीवी, अफलातून,भूपेन, प्रियंकर, हर्षवर्धन को सुनना और समझना एक 'दिव्य अनुभव' (पुरानी भाषा) रहा। हिन्दी ब्लॉगरी के प्रति बहुत आश्वस्त हुआ। संगोष्ठी से छोटे छोटे ग्रुपों (गुटों नहीं) में इकठ्ठे लोग एक दूसरे से मिल पाए- यह एक महती उपलब्धि रही। आप का शांत भाव से काम करना लुभा गया। काश !...
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256530198220#c3288112547095441939'> 26 अक्तूबर 2009 को 9:39 am बजे
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256530272060#c8635250789053885909'> 26 अक्तूबर 2009 को 9:41 am बजे
गिरिजेश,मैंने पोस्ट दुरुस्त करके आपकी बात लगा दी है। अच्छा किया जो आपने बता दिया। आप सबों से एक बार फिर अपील है कि जहां कहीं भी कमी-खोट है,आप बताएं,मैं उसे तत्काल दुरुस्त करने की कोशिश करुंगा। शुक्रिया।.
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256537657115#c178882563409843191'> 26 अक्तूबर 2009 को 11:44 am बजे
आपने विस्तार से रिपोर्ट तैयार की है। आपकी मेहनत को सलाम करता हूं।
लेकिन जहां तक अरविंद जी द्वारा विज्ञान के ब्लॉग के उदाहरण के रूप में अपने ब्लॉगों के उदाहरण देने की बात है, जब वे सभी विज्ञान के ब्लॉगों से जुडे हुए हैं, तो फिर उदाहरण के लिए दूसरे ब्लॉग कहां से खोजते।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256542288090#c6222192736546304182'> 26 अक्तूबर 2009 को 1:01 pm बजे
विनीत सबसे तेज चैनल की तरह सबसे तेज रपट लिख डाले हो, अभी तक चैनल का असर बाकी है। हालांकि रपट बढ़िया लिखे हो। यादाश्शत तो अच्छी खासी है तुम्हारी। इतना सब कुछ याद रख लिए, बाकी ब्लागर तो आपका नेट कनेक्शन का इस्तेमाल कर खबरें लिख रहे थे, और आप ही अपनी फाइल सेव नहीं कर पाए। वरना शब्द दर शब्द रिपोर्ट की आस थी। पर जितना लिखे हो, बहुत अच्छा लिखे हो
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256559588824#c5218683058858908319'> 26 अक्तूबर 2009 को 5:49 pm बजे
शिमला वाला सम्मलेन तो काफ़ी बेहतर था. ज्ञानवाचन और हिदायत देने वाला तो फिर कोई नहीं था वहां. वे भी नहीं थे. जो न जानते थे मीडिया-उडिया वे जबरदस्ती अपनी घुसेड़ने को बेताब भी नहीं थे. मेरे खयाल से हिंदी में ऐसा जमघट कम ही लगता है. जहां तक इलाहाबाद से ठीक से जान-पहचान न हो पाने का जो अफ़सोस जैसा कुछ जता रहे तो भैया मैं तो यही कहूंगा कि यश मालवीय से मिल लिए, उनके साथ संगत कर लिए; काफ़ी है. यश भैया न केवल गीत के खजाना हैं बल्कि एक उम्दा इंसान और चलता-फिरता इंसायक्लोपीडिया हैं, वो भी गाइडनुमा. गोलगप्पे खाए ही लिए अब रह ही क्या गया!
हिंदी में गुज़र गए और हिंदी से बन गए लोगों की दिक़्क़त उनके गुज़र जाने के बाद ही निबटेगी. हर चीज़/प्रयोग/विधा/प्रविधि/उपक्रम को ये थक चुके बाबा लोग हिंदी साहित्य के पैमाने पर आंकने की कोशिश करते हैं और मन माफिक न पाने की स्थिति में उसे हिंदी साहित्य की चासनी में भिगोने की भरसक कोशिश करते हैं. चारण-वंदन की परंपरा इतनी सशक्त है कि अब तक उन्हें क़ायदे से कोई चुनौती नहीं मिल पायी है. चिंता न करो, माचीस की डिब्बियों से खड़ी इनकी हवेली अब भरभरा कर गिरने ही वाली है.
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256839340288#c3646811712704164625'> 29 अक्तूबर 2009 को 11:32 pm बजे
" लेकिन पहले दिन वक्ताओं को बोलने देने में जितनी दरियादिली दिखायी गयी अगले दिन उसकी गाज भाषा,साहित्य और संप्रेषणियता के सवाल पर बोलने आए वक्ताओं पर गिरी। जाहिर तौर पर उसका शिकार मैं भी हुआ। विश्वविद्यालय की ओर से जो न्योता हमें भेजा गया था उसमें ये साफ तौर पर लिखा था कि आप जो भी बातचीत करेंगे उसे प्रकाशित किया जाएगा इसलिए हमनें अपने स्तर से बीस मिनट बोलने के लिहाज से तैयारी की थी जबकि हमें पांच मिनट,सात मिनट के भीतर,गहरे दबाबों के बीच अपनी बात खत्म करनी पड़ी। मैंने तो फिर भी पांच मिनट के निर्धारित समय होने पर भी हील-हुज्जत करके ढाई मिनट आगे तक जारी रहा लेकिन बाद के वक्ताओं से कहा गया कि आप एक-एक मिनट में अपनी बात रखें। दिल्ली से चलते हुए सोचकर ही कितना अच्छा लग रहा था कि हम देश में पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होनेवाली चिट्ठाकारी संगोष्ठी में विमर्श करने जा रहे हैं जिसे कि पाठ के रुप में तैयार किया जाएगा लेकिन आप समझ सकते हैं कि बोलते वक्त हमने ऐसा महसूस किया कि खून,पेशाब,थूक और खखार की तरह यहां अपने विचारों की सैम्पलिंग भर देने आए हैं।"
प्रिय विनीत आप लिखते समय बहक गये हैं तथा वास्तविकता और कल्पना की घालमेल कर रहे हैं . दूसरे दिन के पहले सत्र में मसिजीवी, गिरिजेश राव, विनीत कुमार, डॉ. अरविंद मिश्र, हेमंत, हिमांशु पांडेय और हिमांशु रंजन ये सात वक्ता थे . सभी ने दस से पन्द्रह मिनट के समय में अपने चुने हुए विषय पर अपनी बात रखी .
आपने पन्द्रह मिनट से कुछ ज्यादा समय (पन्द्रह मिनट सोलह सैकिण्ड में)अपनी बात बहुत अच्छे ढंग से रखी . अगर आपकी बीस मिनट की तैयारी थी और आपको या अन्य वक्ताओं को पांच मिनट और मिल पाते तो बहुत अच्छा होता . पर आयोजकों की एक व्यवस्था होती है और उसके अनुरूप हम थोड़ा-बहुत समायोजन करते हैं . तो यह थोड़ा-बहुत ही था,वैसा नहीं जैसी आपने प्रतीति देने की कोशिश की है .
जिन्हें पांच मिनट का समय मिला वे नाम तत्काल आए थे और उन्हें वक्ताओं के वक्तव्य पर टिप्पणियां करनी थीं . तो जो एक्सटेंपोर टिप्पणी करने आ रहा है,समय के दबाव को देखते हुए उसके लिये पांच मिनट पर्याप्त समय है. अन्तिम वक्ता अन्तिम क्षण में नाम देकर एक कविता सुनाना चाहते थे उन्हें दो मिनट का समय दिया गया था . पर उन्होंने पूरी कविता सुनाई और सुनी गई .
मुझे इसमें अन्याय जैसा और हाहाकार करने जैसा कुछ नहीं दिखा जैसा तुमारी ’सब्जेक्टिव’ और ’कलर्ड’ प्रतिक्रिया से लग रहा है .
हां ! रियाज़ बहुत सही मुद्दे उठा रहे थे . उनका नाम वक्ताओं में होना चाहिए था,टिप्पणी करने वालों में नहीं . वे क्यों वक्ता नहीं थे इस बारे में मुझे कुछ नहीं पता . शायद रियाज़ बता पाएं या आयोजक .
हां! आपको दोनों दिन मिलाकर बीस मिनट का समय मिल ही गया था . इसलिये आपका दुख रूमानी लगता है . दूसरे दिन के पहले सत्र का आपका पन्द्रह मिनट सोलह सैकिन्ड वाला वक्तव्य रवि जी ने सबके सुनने के लिये ब्लॉग पर पोस्ट कर दिया है . और यह वक्तव्य खून,पेशाब,थूक और खखार की सैम्पलिंग नहीं है . पन्द्रह मिनट की अवधि के सुचिंतित विचार हैं .
हां ! रवि रतलामी जैसे वरिष्ठ ब्लॉगरों को हमें और और सुना चाहिए . उन्हें सुनने के अधिक अवसर सृजित करने चाहिए .
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1256879179092#c7715294613452041089'> 30 अक्तूबर 2009 को 10:36 am बजे
प्रियंकर जी,आपकी बातों से काफी हद तक सहमत हूं।
लेकिन दोनों दिन मिलाकर क्यों कह रहे हैं। पहले दिन तो मैंने एक भी शब्द कहा ही नहीं। सिर्फ नाम और अपने ब्लॉग का लिंक बताया। पहले दिन तो बलॉग को लेकर एक शब्द तक नहीं कहा। जहां तक सैम्पलिंग का सवाल है तो ये सिर्फ अपने लिए कई और ब्लॉगरों के लिए भी लिखा है। अगर आप मंच से ये सुन रहे होंगे कि एक मिनट में अपनी बात रखिए तो आप समझ रहें होगें कि मैंने सैम्पलिंग के मेटॉफर क्यों इस्तमाल किए। इन सबके वाबजूद हम तो पहले दिन से ही आयोजकों का शुक्रिया तो अदा कर ही रहे हैं कि उन्होने इतना बड़ा आयोजन कराया। लेकिन साथ ही अपनी बात रख रहे हैं तो इसलिए कि आगे से जो भी िश तरह के आयोजन कराएं तो इन सब बातों का ध्यान रखें। हमने कहीं भी तूल देने की कोइश नहीं की है। मैंने इसे किसी भी रुप में व्यक्तिगत बनाने की कोशिश नहीं की है। फिर भी आपके सुझावों के लिए शुक्रिया। हम इस तरह के सुझावों से औऱ बेहतर होंगे।.
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1257253197918#c7516479380211579458'> 3 नवंबर 2009 को 6:29 pm बजे
विनीत
जिस लड़के ने आपको टोंका था उसका नाम मनीष था
http://taanabaana.blogspot.com/2009/10/blog-post_25.html?showComment=1257272380944#c4100794867159084079'> 3 नवंबर 2009 को 11:49 pm बजे
सरजी,काहे वेपरद कर दिए। हम एक मन सोचे कि बराइकेट में लिख दें बदला हुआ नाम। फिर सोचें कि जाने देते हैं। आप ओरिजिनले नाम चस्पा दिए हियां।.