वो अपने टिस्स के हॉस्टल(टाटा इन्स्टीट्यूट ऑफ सोशल साइन्सेज,मुंबई)का कमरा छोड़कर,एनेक्जायटी डिस्ऑर्डर की स्थिति में,एम.फिल् कर रहे एक सीनियर दोस्त के कमरे में दसों दिनों तक पड़ा रहा। चुपचाप,गुमसुम,बिना किसी को कुछ बताए, किसी बात पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर किए बगैर...। अगर उसी के शब्दों में कहूं तो
टिस्स में सबसे ज्यादा विजिवल लड़का,ऐसा कैसे कर सकता है, सोचता हूं तो ताजुब्ब होता है। लेकिन इन सबके बीच ये भी एक सच है कि कभी शराब को नहीं छूनेवाला,सिगरेट को जिसने कभी हाथ तक नहीं लगाया और उस दिन पूरी की पूरी बोतल पी गया, कितना पानी या सोड़ा मिलाया पता नहीं, आठ सिगरेट एक के बाद एक पी गया, कितनी कश मारी और कितने को फिल्टर तक आने पर भी कश खींचता रहा, कुछ भी याद नहीं। बस इतना याद करता हूं कि अगर मैं ट्रेन से सफर करने जा रहा हूं और चढ़ने के पहले ही लड़खड़कर गिर जाउं तो मेरी जिंदगी का सबसे बेहतरीन दिन होगा। मरने की स्थिति में इसके लिए न तो कोई जिम्मेवार होगा औऱ न ही बच जाने की स्थिति में आत्महत्या के प्रयास में फिर से मौत को दोहराने जैसी जिंदगी जीनी पड़ेगी। भैय्या, सबकुछ भूल जाने की स्थिति में मैं अब भी इस बात को याद करता हूं, ऐसे जैसे कि ये मेरे साथ घटित हुआ है या फिर इसका कुछ न कुछ हिस्सा अभी भी किस्तों में जी रहा हूं। ये एक टिस्स से महीने भर में सोशल वर्क की डिग्री लेकर दुनिया में समाज बदलने के जज्बे को लेकर संस्थान से बाहर आनेवाले छात्र का सच है।
यह एक उस छात्र का सच है जिसने तीन साल तक मीडिया की पढ़ाई की, अखबारों में जमकर लिखा, आजतक में 45 दिनों तक आर्थिक खबरें लिखीं,दिल्ली की समस्याओं पर "जनपथ" जैसे कार्यक्रमों में अपनी रुचि से जाता रहा...हर बार एक नए विचारों के साथ,एक नयी बहस के साथ और एक नए अंदाज में हमसे टकराता रहा,घंटों विडियोकॉन टावर के नीचे चार रुपये की मूंगफली पर हमें दुनियाभर की नसीहतें देता रहा और अंत में कहता आया- भैय्या,आप तो मेरे से बड़े हैं,आप बेहतर जानते हैं। ये उस साथी का सच है जो एक समय में मीडिया के जरिए समाज को बदलने के लिए नहीं तो कम से कम बेहतर करने के लिए बेचैन रहा और बाद में और अधिक योगदान देने की नीयत से किसी चैनल में नौकरी करने के बजाय,एमए करने सीधे टिस्स मुंबई चला गया। वहां जाकर वो लगातार मीडिया के उन माध्यमों पर काम करता रहा, वर्कशॉप में जाता रहा जो कि कम लागत में लोगों को जागरुक कर सके, कभी सामुदायिक रेडियो को समझने, एक महीने के लिए अहमदाबाद चला जाता,कभी हैदराबाद तो कभी "सेवा" के लोगों के साथ वैकल्पिक मीडिया को लेकर प्रोजेक्ट पर काम करने लग जाता। मैं उससे एक ही बात कह पाता- तुम जितना काम करते हो और वो भी अलग-अलग जगहों पर जाकर,मेरे लिए तो काम करना तो दूर, सिर्फ वहां चला जाउं तो ही बहुत है। फोन पर तो कम ही लेकिन ऑनलाइन होने पर एक ही बात कहता- एक बार समाज को लेकर सोचिेए तो आप भी कर लेंगे। हमेशा भीतर एक आग, कुछ करने की छटपटाहट,एक ही बात- दिल्ली लौटूंगा भईया,और बेहतर होकर, और जोरदार तरीके से। आज वो बताता है कि उसे लो ब्लडप्रेशर हो गया है और वो दो दिनों तक हॉस्पीटल में भर्ती रहा। ये टिस्स में पढ़ रहे उस छात्र का सच है जो कल कहीं भी जाएगा तो बीस-पच्चीस लोगों के लिए गाइडलाइन तय करेगा कि समाज को बेहतर बनाने के लिए क्या करने चाहिए, जैसा कि संस्थान का दावा है। वो पढ़ाई के जरिए सिर्फ बेहतर इंसान बनने नहीं गया, बेहतर इंसान बनाने की समझ विकसित करने गया। आज वो देर रात कह रहा है, चैट करते हुए कितना कहूं,क्या कहूं भइया और फिर उसने फोन ही कर दिया। उखड़ी हुई आवाज,बार-बार बातों का टूटता क्रम और भीतर से एक डर भी कि कहीं आसपास कोई है तो नहीं,बात करते हुए अब रो देगा कि तब।
भइया, ऐसी जगहों पर आकर हमारा कितना बड़ा मिथक टूटता है,हम छोटे शहरों से आकर डीयू में पढ़ते हैं,टिस्स में पढ़ते हैं,मन के भीतर औऱों से अलग और फिल्टर्ड होने का भाव होता है। हम यहां आकर जातिवाद को खत्म करना चाहते हैं,सामाजिक भेदभाव को दूर करना चाहते हैं। दुनिया हम जैसे लोगों को गरियाती है कि मोटी रकम देकर पढ़ने के बाद लोगों के खून चूसकर जमा किए पैसे को सैलरी के तौर पर लेगा और कहता है कि समाज बदलेंगे। गुस्सा तो बहुत आता रहा कि लोगों को ऐसा कहने का क्या अधिकार है लेकिन अब लगता है कि लोगों को गरियाने का पर्याप्त अधिकार है। वो क्यों न गरिआएं, हम किसकी स्थिति सुधारने में लगे हैं। किसके बीच से जातिवाद खत्म करना चाहते हैं,कौन-सा सामाजिक भेदभाव दूर करना चाहते हैं, किसके लिए गाइडलाइन तय करने की ट्रेनिंग ले रहे हैं, अपने लिए या फिर उन गरीबों के लिए, देश की गटर में पैदा होकर दम तोड़नेवालों के लिए जो कल एनजीओ में जाने पर वो हमारी भाषा तक नहीं समझेंगे।..औऱ हमारे लिए जाति,भेद,उंच-नीच,ब्राह्मण-राजपूत, सब कुछ पहले से तय भेदभावों के आधार पर चलता रहेगा।
आगे भी जारी.....
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/04/tiss.html?showComment=1238997660000#c815434587380197404'> 6 अप्रैल 2009 को 11:31 am बजे
यह उसी कुंठा और विसंगति का ताज़ा उदाहरण है जिसकी चर्चा हम कल रात कर रहे थे। मैं, मुन्ना और आप....
फिर भी आके इस मित्र को मध्यम मार्ग के बारे में सोचना चाहिए, क्योंकि यह उम्मीद आप नहीं कर सकते कि जिन मरे लोगों के लिए आप काम कर रहे हैं, वे इंसानों की तरह वीहैव करें।