फोन पर वो लगभग गुस्से में थे। गुस्सा शब्द इस्तेमाल करने से वो भाव पैदा नहीं हो रहा जो भाव मैं उनसे बात करते हुए महसूस कर रहा था। इसके लिए अपनी तरफ शब्द इस्तेमाल करते हैं,बमके हुए थे, कबड़ गए थे या फिर बमककर फायर हो गए थे...जो भी हो,कथादेश में गिरि यानी उऩके बारे में कुछा लिखा गया है, लोगों द्वारा फोन पर ये बताए जाने के बाद वो ऐसे ही कुछ हो गए थे। फोन पर तो हमें कुछ बोलते बना ही नहीं कि क्या कहा जाए,बाहर थे सो इतना ही कहा-आप ध्यान से पढ़िए,ऐसा कुछ नहीं लिखा है आपके बारे में और वो तो आपके लिए है भी नहीं,वो तो गिरीन्द्र के बारे में लिखा है जो उनसे फेसबुक पर बात हुई थी। कथादेश में सिर्फ गिरि छपा देखा तो मन में खटका हुआ था कि कहीं झमेला न हो जाए, बेकार में निगेटिव पब्लिसिटी न हो जाए। अब मेरे दिमाग में एक ही सवाल बार-बार आ रहा था कि किसी को प्यार से पुकारने में भी झमेला हो सकता है? किसी को प्यार से पुकारने में भी कन्फ्यूजन हो सकता है। खैर,रात में दोबारा फोन करके डीटेल में सबकुछ बताया और साथ में कहा भी कि आप मेरे से बड़े हैं,आप हमें भइया क्यों कहेंगे,तब जाकर मामला नार्मल हुआ।
गिरीन्द्र को मैं प्यार से गिरि कहता हूं,वो मुझे भइया कहता है। ये भइया संबोधन,लड़कियों के उच्चारण भय्या से बिल्कुल अलग होता है। पहले मुझे लगा कि संस्कारवश मुझे ऐसा कहता है इसलिए मैंने टोका भी लेकिन बाद में देखा कि ये संस्कार से ज्यादा लगाव का मामला है तो मैंने कुछ नहीं कहा। वैसे भी पच्चीस साल तक लोगों को भइया-भइया बोलते मेरी जीभ घिस गयी,बदले में दोनों कानों को सिर्फ नसीहतें,आदेश और फटकार ही नसीब हुए तो अब गिरि से भइया सुनने से कानों को राहत मिलती है,सो मैं कुछ कहता नहीं।
आपका किसी से लगाव होता है तो अमूमन पहला काम करते हैं कि उसके नाम को कुछ अपने अंदाज में बदल देते हैं या कोई नया नाम देते हैं। प्रेमी-प्रेमिकाओं के मामले में सिनेमा के जरिए आप सैंकड़ों उदाहरण जुटा सकते हैं। जिस लड़की के मां-बाप ने कुछ और नाम रखे हैं, उसका लड़का दोस्त कुछ अलग नाम से बुलाता है। कई बार तो सेंटी सीन इसी आधार पर बनते हैं कि वो हमें स्वीटी नाम से बुलाता रहा,लेकिन अब...। गांवों में जिस स्त्री का पति पहले मर जाता है तो वो चूड़ी फोड़ते हुए चिल्लाती है- राजा रे राजा, अब हमरा मलकिनी के कहतै रे राजा,छः साल के बेटे को अपनी ओर खींचती है,फिर...राजा रे राजा,अब ऐकरा(इसको)धन्नू(असली नाम धीरज) के कहतै रे राजा। अपने भावों को, प्यार-लाड़,दुलार को जाहिर करने के लिए नाम का बदलना या अपने हिसाब से कोई नया नाम देना आम बात है। कई बार इसी से मूड़ का पता चलता है,महौल औऱ हालात का पता चलता है। कई बार लड़की जब सर्टिफिकेट के नाम से बुलाती है,तब समझ जाइए कि पास में उसका बाप-भाई मौजूद है या फिर वो ऐसी जगह पर है जहां उसकी नोटिस ली जा रही है। मूड़ खराब होने की स्थिति में अपनी ओर से दिया गया नाम लेना आसान नहीं होता,गुस्से को जाहिर करने का संकेत ही होता है कि उसे सर्टिफिकेट के नाम से बुलाया जाए और सुनकर अटपटा लगे।
बचपन में हमारे कई नाम होते हैं,यानी हमारे कई पर्यायवाची शब्द होते हैं,एक ही बच्चे के आधे दर्जन नाम। उसकी हर अदा को लेकर एक नाम,उसके हर ऐब को लेकर एक नाम। दोस्तों की ओर से दिए गए नाम,मां,बाप,पड़ोस,मौसी,चाची औऱ बुआ-फुआ की ओर से दिए गए नाम। इसलिए नाम की कई श्रेणियां बनतीं। पुकरुआ नाम यानी जिस नाम से पुकारा जाता हो,दुलरुआ नाम जिसे कि आमतौर पर मां-बाप रखते हैं,घऱेलू नाम जिसे कि आसपास के लोग जानते-पुकारते हैं। असली नाम जो कि स्कूल में दर्ज होता है। नाम रखने की एक और कोटि होती। गांव-घर में कईयों के यहां बच्चा पैदा होते ही या कुछ दिन के बाद मर जाता,बहुत दिनों तक बच्चा होता ही नहीं,मन्नतें मांगनी पड़ती जिसको मांगल-चांगल बच्चा कहते। ऐसी स्थिति में उसके नाम प्रेम और भावुकता के आधार पर नहीं सुरक्षा के लिहाज से रखे जाते,एकदम हेय समझे जानेवाले नाम जैसे फेकुआ(फेका हुआ),नेटवा(नाक की गंदगी),अघोरी(जो हमेशा गंदा,श्मशान में रहता है)। ऐसे नाम रखने के पीछे की समझ होती कि इससे भगवान को भी घृणा हो या फिर उसे लगे कि ये बच्चा मां-बाप के लिए मामूली है और मारने के लिहाज से नजरअंदाज कर जाए। कुछ लोगों के नाम अपभ्रंश करके बुलाए जाने लग जाते हैं जिसे लोग अपने नसीब का नाम मान लेते हैं। अब दिल्ली दूर नहीं फिल्म में घसीटाराम(नसीब के घिस जाने पर)अपने नाम का तर्क इसी आधार पर बताता है।
इसलिए आप देखते होंगे कि बचपन में आपसे पूछा जाता होगा-आपका क्या नाम है और आप जबाब देते होंगे-रिंकू,चिंटू,मन्नू,मुन्नी,सुल्ली,बेबी या फिर फेकू तो आपसे दुबारा पूछा जाता होगा- ये तो घर का नाम है,असली नाम क्या है। असली नाम माने स्कूल का नाम। तब आप मेहनत-मशक्कत करके बताते होंगे-धीरज,राजेश,सुभाष,माधुरी,रजनी,अर्चना आदि-आदि। मतलब ये कि घर के नामों में भावुकता या अपनापा झलकने पर भी इसे असली नाम नहीं माना जाता क्योंकि जीवन भावुकता से नहीं,व्यावहारिकता से चलती है, इसलिए इसके लिए असली नाम चाहिए होते हैं,यानी स्कूली नाम। जब हम बड़े होते हैं तो एक अदब आने लग जाती है,इगो सेंस पैदा होता है, हम चाहते हैं कि लोग हमें अपने असली नाम से पुकारे,अकेले में गर्लफ्रैंड जानू,तानी पार्टनर कह ले लेकिन समाज में असली नाम ले,मां-बाप भी ऐसा ही करे। इसलिए कई बार बड़े हुए बच्चे पिंकू,झुनकी कहने पर तुनक जाते हैं- मां अब हम बड़े हो गए हैं, सबके सामने आप ये नाम बोलती हैं, अच्छा नहीं लगता। पड़ोस की लड़की के घर का नाम स्कूल में दोस्तों को बता दो तो वो शर्म से पानी-पानी हो जाती है। मेरी एक लड़की दोस्त ने मजाक में कहा करती है आगे से जहां तुम हमको टिनिया बोले तो चार जूता मारुंगी.ये अलग बात है कि शहर में उसका ये नाम उसे अपनापा-सा लगता है।
बड़े होकर हम चाहते है कि कोई हमारा दुलरुआ नाम न ले,पुकारु नाम न ले,घरेलू नाम न ले, इससे हमारे बड़े होने का एहसास खत्म होता है,हमारा कद छोटा होता है, हमारे बैग्ग्राउंड का पता चल जाता है, जिसे कि हम धो-पोछकर खत्म कर देना चाहते हैं। लेकिन यहां का तो झमेला ही अलग है- एक ही नाम लिया गिरि जिसके लिए ये दुलरुआ नाम है, वो इतरा रहा है,खुश हो रहा है और दूसरा जिसका कि असली नाम है,बबमकर फायर है। अब किसी को है हिम्मत कि कहे-भइया नाम में क्या रखा है।
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/04/blog-post_11.html?showComment=1239651180000#c1827591838559628126'> 14 अप्रैल 2009 को 1:03 am बजे
भाई आलेख जरा छोटा रखा करें। वैसे अच्छा लिखा है। बधाई।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/04/blog-post_11.html?showComment=1239859380000#c2312938368854954296'> 16 अप्रैल 2009 को 10:53 am बजे
भइया, इसीलिए सेफ़ साइड चलते हुए किलकारी के स्कूल के लिए एक नाम और रखना पड़ा है. कहीं बड़ी होकर बिटिया किलकारी न कहलवाना चाहे तब त झमेला हो जाएगा न!
बढिया लिखे.
इधर अभिव्यक्ति के चक्कर में 4-5 रोज़ से ब्लॉग-उलॉग पर नहीं आ रहे थे पर अब आना-जाना लगा रहेगा.