मूलतः मीडिया मंत्र,मार्च 2009 में प्रकाशित
स्क्रीन पर की स्त्री, पुरुष पत्रकारों-प्रोड्यूसरों के लिखे-कहे शब्दों के आगे गुलामबंद होती हैं, ये विमर्श उन लड़कियों के लिए चौंकानेवाली हो सकती है जो कि मीडिया कोर्स के दौरान अपने को पर स्क्रीन पर देखना चाह रहीं हैं। स्क्रीन के जरिए मुक्ति की तलाश में है। इस लिहाज से नाइट्स एंड एंजिल्स (शाहरुख खान की क्रिकेट टीम के लिए चीयर लीडर्स के चुनाव के पर आधारित रियलिटी शो) की एक प्रतिभागी नताशा ने जब कहा कि वो या तो मॉडल बनना चाहती है फिर जर्नलिस्ट तो हमें बिल्कुल भी अटपटा नहीं लगा।( एनडीटीवी इमैजिन,नाइट्स एंड एंजिल्स 10.17 बजे रात,28.02.08) मेरे मन में ये सवाल एकदम से नहीं आया कि मॉडल और जर्मलिस्ट का एक-दूसरे से क्या संबंध है। हमें इन दोनों प्रोफेशन के बीच के अंतर्विरोध से ज्यादा उनके बीच की समानता का ध्यान आया। जाहिर है इस वक्त हमें स्त्री पत्रकार के तौर पर कलम घिसती हुई, खट-खट कीबोर्ड पर स्क्रिप्ट लिखती हुई, अखबार के एडिटोरियल पन्नों से जूझती हुई किसी लड़की या स्त्री की छवि ध्यान में नहीं आया। स्त्री-पत्रकार की जो छवि हमारे सामने बनी वो मॉडल से बहुत आस-पास की छवि थी। स्त्री पत्रकार की इस छवि को देखने,सुनने और इन्ज्वॉय करने के हम धीरे-धीरे अभ्यस्त हो चले हैं।
रवीश कुमार ने खबर,एंकर और भाषा पर सवाल उठाते हुए लिखा है कि- कहना यह चाह रहा हूं कि महिला एंकरों की भाषा भी उनकी नहीं है। कोई लिख देता है और उन्हें बोलना पड़ता होगा। चीख चीख कर। घुस कर मारो पाकिस्तान को,क्या कोई लड़की लिखती? ( क्या ये जेंडर का प्रॉब्लम है ? )... एक दिन हिंदी न्यूज़ चैनलों में काम कर रहीं लड़कियों को आगे आना ही होगा। दावा करना ही होगा। उन्हें लिखने के लिए कीबोर्ड पर जगह बनानी होगी। (फरवरी 14,08 http://naisadak.blogspot.com)। रवीश कुमार के इस सवाल के बहाने चोखेरबाली ने स्क्रीन पर मौजूद स्त्री-पत्रकारों के उपर अपनी टिप्पणी करते हुए लिखा -कंटेंट पर स्त्री का नियंत्रण नही है, डिसीज़न मेकिंग की बात तो दूर वह अपनी बात अपने शब्दों मे भी नहीं कह पा रही है ,एंकरिंग फिर भी सुलभ है जो किसी रैम्प पर किसी और के बनाए परिधानो की प्रदर्शनी के लिए किए जाने वाले कैट वॉक जैसा है। झलकती है तो केवल स्त्री की दर्शनीयता,कमनीयता ....उसकी योग्यता नहीं ...(सुजाता, स्त्री का कंटेंट पर कोई नियंत्रण नही है, फरवरी 20, 08, http://blog.chokherbali.in)।)
इस लिहाज से हम बात करें तो टेलीविजन पत्रकारिता की दुनिया में ये स्त्री-पत्रकारों की अधूरी उपस्थिति है। स्क्रीन पर सबसे ज्यादा स्त्री पत्रकार होने के वाबजूद भी पत्रकारिता के बाकी हिस्सों से वो बेदखल है। स्त्री-विमर्श के चश्मे से ये फ्रैक्चरड जर्नलिज्म का हिस्सा है।
स्त्री-पत्रकार से अलग, स्क्रीन पर स्त्री की एक दूसरी छवि है। ये स्त्री, पुरुष पत्रकारों की लिखी स्क्रिप्ट पढ़ने और उसके कहने पर सवाल पूछने से अलग काम करती है। ये डांसिग क्वीन बनकर नाचती है, वर्चुअली बिग बॉस बनने की कवायद में जुटी है ,इंडियन ऑयडल में पुरुष पार्टिसिपेंट को धक्के देकर आगे आती है। पितृसत्ता में रचे-पगे समाज और लगातार तीन बार पुरुषों को ही इंडियन ऑयडल के तौर पर चुननेवाली ऑडिएंस को झुठलाती हुई सवाल करती है- मुझे अभी भी भरोसा नहीं हो रहा कि मैं देश की इंडियन ऑयडल हूं।( सोनी इंटरटेनमेंट टेलीविजन,इंडियन ऑयडल-4, सौरभी डेब्बरमाः 1 मार्च 08)। संभव है ये टेलीविजन के चोचले से ज्यादा कुछ नहीं। यह भी संभव है कि तीन बार तक पुरुषों को इंडियन ऑयडल का खिताब देने के बाद जजेज के बीच एक लड़की के इंडियन ऑयडल होने की तमान्ना का जागना, रियलिटी शो को बेवजह महान साबित करने जैसा हो।( सोनाली बेन्द्रेः मैंने पहले से ही कहा था कि इस बार गर्ल इंडियन ऑयडल बने तो बहुत खुश होउंगी और तभी मैंने सोचा था कि अगर इस बार गर्ल इंडियन ऑयडल बनती है तो मेरा फेवरिट ब्रैंड बॉच है, गिफ्ट करुंगी। एंड दिस इज द टाइम टू लव यू, टू हैव ओमेगा। सोनी इंटरटेनमेंट टेलीविजन,इंडियन ऑयडल, सौरभी डेब्बरमाः 1 मार्च 08)। ये सब ढोंग है, सब बरगलाने की कोशिशें हैं, सब पाखंड है, सब टीआरपी के लिए है, सब बाजारवादी ताकतों का खेल है, मान लिया।
स्क्रीन पर स्त्री की एक तीसरी छवि है। यह छवि है टेलीविजन सीरियलों में जज़्बातों और कहानी के प्लॉट के हिसाब से चरित्र निबाहती हुई स्त्रियों की। यहां वो ऑडिएंस के सामने कोई गाने नहीं गाती,एकाध बार की बात को छोड़ दें तो नाचती भी नहीं है। वो सिर्फ प्रोड्यूसर के इशारे पर दहाड़ मारकर रोती है,अपनी चूडियां फोड़ती है, घोषित करती है कि उसका सबकुछ लूट गया, अब उसकी जिंदगी का कोई मतलब नहीं रहा है। ( खबर- न्यूज 24,आनंदी के घर मातम,1 मार्च 09,11.27 बजे ) पुरुष प्रोड्यूसरों के इशारे पर एक स्त्री, दूसरी स्त्री को जीना हराम कर देती है, औऱत ही औऱत की दुश्मन है के मुहावरे को मजबूत करती है।( इन्दु, पति को बचाती,अपनी जेठानी द्वारा सतायी गयी पात्र. देहलीज,एनडीटी इमैजिनः9.11 बजे रात, 4 मार्च 08)। इसलिए चलिए टीवी सीरियल को वूमेन स्पेस कहने के वाबजूद भी स्त्री का इससे कुछ भला न होने की बात को भी मान लिया।
न्यूज चैनलों में, संभव है वो पुरुषों की तरह ललकारनेवाली भाषा का इस्तेमाल नहीं कर सकतीं। ये भी संभव है कि वो कमजोर कंटेंट के वाबजूद स्क्रिप्ट के दम पर उसे देश और दुनिया की सबसे बड़ी खबर बनाने के काबिल न हों। लेकिन क्या दूसरों की लिखी स्क्रिप्ट को पढ़नेवाली एंकर पर, प्रोड्यूसर के मुताबिक सवाल करनेवाली एंकर पर, स्टूडियों में बैठे पुरुष एंकर औऱ फील्ड में मौजूद स्त्री-संवाददाता पर पत्रकारिता के नाम पर पुरुषों के विचार, विश्लेषण, भाषा औऱ प्रस्तुति के स्तर पर गुलाम होने का तोहमत लगाया जा सकता है। नाचती हुई स्त्री, पुरुषों के विरोध में संवाद बोलती हुई स्त्री को, सीरियलों में प्रोड्यूसर के कहने पर मर जानेवाली स्त्री को टीआरपी की कठपुलियां भर ही समझा जा सकता है। एंकर बनने की चाहत रखनेवाली मीडिया कोर्स की लड़कियों को गुलाम मानसिकता का शिकार बताया जा सकता है। इन सब पर नए सिरे से सोचना जरुरी है। यहां ये बिल्कुल नहीं कहा जा रहा है कि जो लोग स्त्री के पक्ष में बहस चला रहे हैं, उन्हें स्त्रियों की स्थिति के बदलाव की समझ नहीं है। लेकिन एक बड़ी सच्चाई है कि स्त्रियों की स्थिति में बदलाव और मुक्ति की बात सिर्फ लोकसभा टीवी पर होनेवाले जेंडर डिस्कोर्स की तर्ज नहीं किए जा सकते। दिक्कत ये है कि, बात स्क्रीन पर स्त्री की हो या फिर किसी दूसरे प्रोफेशन में मौजूद स्त्रियों की। स्त्रियों के संदर्भ में जब भी हम बात करते हैं तो उसकी प्रजेंस के बजाय उसकी भूमिका पर पूरी तरह फोकस हो जाते हैं।
लेकिन वर्चुअल स्पेस में आते ही विश्लेषण का ये आधार बहुत पर्याप्त साबित नहीं होता। वर्चुअल स्पेस की सबसे बड़ी शर्त है प्रजेंस और उससे जुड़ी ऑडिएंस की मानसिकता की समझ। हम जैसे माथापच्ची करनेवाली जमात के अलावा भी देश में तीन-चार जेनरेशन हमेशा से मौजूद है जो कि टेलीविजन स्क्रीन पर स्त्री किस रुप में मौजूद है, इस बहस में न जाकर उसकी मौजूदगी को ही सबसे बड़ी ताकत मानती है। ये हमारे-आपके और उन तमाम लोगों के लिए खोखली बात है औऱ हो सकती है जो ये मानते हैं कि केवल स्क्रीन पर ज्यादा से ज्यादा स्त्रियों के आ जाने से कुछ नहीं होगा। सामाजिक विकास औऱ स्त्री-समाज के हौसले में इससे कोई इजाफा नहीं होने जा रहा। हमें ये भी देखना होगा कि वो किस रुप में आ रही है। लेकिन, ऑडिएंस के लिए इसका बहुत अधिक मतलब नहीं है।
देश की एक बड़ी ऑडिएंस आज भी इस प्रभाव से मुक्त नहीं हैं जिनके लिए स्क्रीन पर स्त्रियों का ही बड़ी है। टेलीविजन, ऑडिएंस की इसी मानसिकता की समझ के आधार पर काम करता है। स्क्रीन पर स्त्री की उपस्थिति( प्रजेंस/होने) से सत्ता की ताकत हासिल होती महसूस की जाती है। थोड़ी देर के लिए आप इस बहस से बाहर निकलिए कि स्त्री-पत्रकार दूसरों की लिखी स्क्रिप्ट पढ़ती है, एकरिंग के नाम पर कैटवॉक जैसा कुछ करती है, वो नए स्पेस में भी पितृसत्ता के कब्जे में है, आपको एक नया मंजर दिखाई देगा। आप पाएंगे कि निजी टेलीविजन चैनलों के आने के बाद से स्त्री-पत्रकारों की स्क्रीन पर मौजूदगी औऱ उसकी फ्रिक्वेंसी पहले से बहुत अधिक बढ़ी है। सात से आठ घंटे तक चलनेवाले सीरियलों में स्त्री का अनुपात पुरुषों के मुकाबले कहीं अधिक है। उसकी इस उपस्थिति के पीछे विरोध में कई तर्क जुटाए जाते सकते हैं। लेकिन बाकी बातों के साथ-साथ इतना तो मानना ही होगा कि टेलीविजन स्क्रीन तेजी से वूमेन स्पेस के रुप में बदल रहा है। एक सौरभी डेब्बरमा के इंडियन ऑयडल बनने से,एक सपना अवस्थी पर जुनून चढ़ने से औऱ एक किरण के कचहरी चलाने से दबायी जाती रही स्त्री-समाज के बीच पनपने वाले आत्मविश्वास को नजरअंदाज तो नहीं ही किया जा सकता।
दूसरी बात, जब हम टेलीविजन के संदर्भ में बात कर रहे होते हैं तो क्या सिर्फ इस बात पर टिक कर रह जाना कि जो कुछ बोला जा रहा है सिर्फ उसका ही असर होता है, बाकी चीजों का कोई खास मतलब नहीं होता। अगर ऐसा होता तो फिर आए दिन खबरों को प्रस्तुत किए जाने के पीछे की तिगड़मों का कोई सेंस ही नहीं होता। टेलीविजन में स्क्रिप्ट एक जरुरी मसला है,इसके साथ ही स्क्रीन पर स्त्री की मौजूदगी भी उसी समाचार का हिस्सा है। दूरदराज के किसी इलाके में जहां पढ़ाई के बजाय पर्दे की पहुंच है, स्कूल पहुंचने से पहले केबल नेटवर्क और डिश पहुंच रहे हैं वहां का असर मौजूदगी के स्तर पर है, स्त्री के पीछे लगे इशारों का नहीं। अधिकांश घरों के अंदर जो कि देश के पुरुषों के लिए लीजर प्लेस हैं और स्त्रियों के लिए वर्किंग प्लेस, क्या वहां मसाला कूटती हुई स्त्री, बच्चों की टिफिन औऱ पति की शर्ट प्रेस करती स्त्री, हलाल होती स्त्री टीवी देखने पर स्त्री-पत्रकारों को,प्रोड्यूसर के इशारे पर बिलखती स्त्री को शब्दों की गुलाम स्त्री मानकर देखती है या फिर स्क्रीन पर पहुंच जाने से ताकतवर मानकर हसरत भरी नजरों से देखती है ? सब जानते हैं कि टेलीविजन का सच, असल जिंदगी के सच से अलग है लेकिन उसका असर सच है। इसलिए, बलिया, सिवान,दरभंगा और जबलपुर जैसे देश के इलाकों से आनेवाली लड़कियां ये जानते हुए भी कि उसे एंकर के नाम पर महज आठ हजार-दस हजार रुपयों पर दस-दस बारह-बारह घंटे तक काम करना पड़ सकता है, जी-जान से मीडिया के लिए लगती है। क्यों। क्या, आप इन पर किसी भी हालत में गुलामपसंद होने की तोहमत लगा सकते हैं? वो समझ रही है कि चैनल के भीतर स्त्री-पत्रकारों की स्थिति बहुत बेहतर न होने की स्थिति में भी, स्त्री-भाषा के सीमित हो जाने पर भी बाहर की दुनिया में उसका स्पेस बढ़ता है। स्क्रीन के स्पेस के जरिए समाजिक हैसियत बढ़ती है। आप इसे गलत कहें या सही लेकिन स्क्रीन पर की स्त्रियों के भले के लिए जैसे आप और हम सोचते हैं, वो नहीं सोचती इसलिए उसके लिए हमारा विमर्श जरुरी भी नहीं है। रवीश कुमार की इस इच्छा के साथ कि खबरों की स्क्रिप्ट पर स्त्री-पत्रकारों की दखल बढ़े,मेरे जैसे बाकी लोग भी यहीं चाहते हैं, बल्कि हम तो ये भी चाहते है कि फोकस टीवी जैसे चैनलों की संख्या और बढ़े लेकिन ये मानने को तैयार नहीं हैं कि स्क्रीन पर की स्त्री पत्रकार कैटवॉक के अंदाज की स्त्रियां हैं, प्रोड्यूसर के निर्देश पर एक्ट करनेवाली स्त्रियां अंततः गुलाम होती स्त्रियां हैं। ये अलग बात है कि इस तरह के काम भी आसान नहीं है, मुहावरे से भले ही हम इसे फूहड़ और हल्का साबित करने की लाख कोशिशें कर लें। सारी स्त्रियों के बूते है भी या नहीं, बेहतर हो वो खुद तय करें। सच्चाई ये है कि स्क्रीन पर मौजूद स्त्री, स्क्रीन के जरिए ही सत्ता, शोहरत और सामाजिक हैसियत हासिल करने की राह पर डटीं हैं। इसके जरिए ही वो पितृसत्ता द्वारा बनाए गए सींकचों को ध्वस्त करने की कोशिशों में जुटी हैं जो कि मुक्ति की राह में आर्थिक स्वतंत्रता से भी आगे की चीज जान पड़ती है।......
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/03/blog-post_23.html?showComment=1237823880000#c4761890032047387502'> 23 मार्च 2009 को 9:28 pm बजे
मैं कभी टेलीविजन नहीं देखती हूँ समय के आभाव के कारन, पर आपसे सहमत हूँ ..कभी इसपर भी अपने विचार लिखूंगी
http://taanabaana.blogspot.com/2009/03/blog-post_23.html?showComment=1237964520000#c8552200013655800267'> 25 मार्च 2009 को 12:32 pm बजे
काफी हद तक सहमत !