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तब विजय दिवस पर बनायी बरखा दत्त की चालीस मिनट की डॉक्यूमेंटरी REMEMBERANCE KARGIL TEN YEARS LATER  देखते-देखते आंखों में अपने आप ही आंसू छलछला गए थे. तब लगा था- पता नहीं इस पर किसी हिन्दी चैनल बनाता तो ये प्रभाव पैदा हो पाता भी नहीं.मैंने बरखा दत्त की  इस डॉक्यूमेंटरी पर मीडिया खबर के लिए एक लेख लिखा था और इन्डस्ट्री के कुछ नामचीन लोगों ने मेरी आलचना इस बात पर की थी कि मैं बरखा को मिले साधनों को नजरअंदाज कर रहा हूं. लेकिन वो साधन बाकी लोगों को भी मिलते तो ऐसा कर पाते, पता नहीं.

पिछले तीन दिनों से हिन्दी-अंग्रेजी के सारे चैनलों से गुजरा. क्या कमी है टाइम्स नाउ को, सीएनएन-आइबीएन को और यहां तक कि एनडीटीवी चौबीस गुना सात को लेकिन ऐसी स्टोरी नहीं दिखी. लगातार द हिन्दू पढ़ता रहा. आज सुबह द हिन्दू की स्टोरी पढ़ी- In Tihar, officials feel ‘tinge of sorrow’. उसी तरह अपने आप आंसू आ गए जैसे बरखा दत्त की स्टोरी देखकर आयी थी. वही तरलता, वही सहजता और वही प्रभाव. ऐसे ही वक्त मुझे लगता है हिन्दी और अंग्रेजी के पार भी कोई भाषा है जो व्याकरणों में जाकर नहीं उलझ जाती, वाक्य विन्यास में नहीं फंसती. कभी ऐसा असर नहीं डालती कि हमें उस स्तर की अंग्रेजी नहीं आती, जिस स्तर पर जाकर मीडियाकर्मी ने अपनी बात रखने की कोशिश की हो. संवेदना को जिंदा रखने की तो कोई और ही भाषा होती है. जो हिन्दी,अंग्रेजी, उर्दू चाहे दुनिया की किसी भाषा से परे होती है.

द हिन्दू की इस स्टोरी को पढ़कर संभव है कि वैचारिक रुप से कईयों को असहमति हो लेकिन इस सिरे से जरुर सोचना शुरु करेंगे कि हम जब आंतकवाद,भ्रष्टाचार और यौन हिंसा के खिलाफ खड़े होते हैं और गुनाहगारों के लिए सजा की मांग करते हैं तो संवेदना की वो जमीन बिल्कुल छूट तो नहीं जाती जिसके विरोध में हम दूसरा समाज रचने की कोशिश करते हैं. लेख ने ठीक ही तो सवाल उठाया है कि अफजल की तरह कितने हिन्दुओं ने चारों वेद पढ़े होंगे ? कितने लोगों ने दोनों धर्मों के बीच तुलनात्मक अध्ययन करके साम्यता देखने की कोशिश की होगी? आप मत मानिए इस राइट अप की बात लेकिन मीडिया के उस चेहरे पर शक तो जरुर कीजिए जो खबर देने के बजाय एक पक्ष तैयार करता है जो कि अपने आप में इतना घिनौना,क्रूर और आगे चलकर स्वयं उन मूल्यों के विरोध में है जिसके बिना पर उसका पूरा का पूरा धंधा खड़ा है. आखिर क्या कारण है कि लगातार चौबीस घंटे की कवरेज के बावजूद टीवी वो संवेदना की जमीन नहीं ढूंढ पाता जो कई बार प्रिंट के आधे पन्ने कर जाते हैं. यहां प्रिंट को किसी भी हालत में बेहतर करार देने की रणनीति है बल्कि इसके अतिरिक्त दो माध्यम होने के लाभ की परख है.

दि हिन्दू की पिछले तीन दिनों से अफजल गुरु ने जिस तरह की स्टोरी प्रकाशित की है, उसके आगे टीवी बहुत ही हारा हुआ माध्यम लग रहा है. उसके पास प्रिंट के मुकाबले दो अतिरिक्त माध्यम है- रेडियो और टीवी, प्रिंट की तरह शब्द तो है ही उसके पास लेकिन दि हिन्दू की स्टोरी से गुजरने के बाद मन में सवाल उठता है कि इन दो अतिरिक्त माध्यमों के होने से भी क्या हो जाता है..नहीं भी होता तो संवेदना के स्तर पर क्या कमी रह जाती भला ? इस मामले में मुझे पूरनचंद जोशी का माध्यमों के विस्तार और सामाजिक विकास से जुड़े तर्क बहुत ही सही लगते हैं कि जिसे हम सूचना क्रांति कह रहे हैं, वो दरअसल तकनीकी क्रांति है और इससे मानवीय विकास होंगे, इसे लेकर किसी भी हाल में आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता. अफजल की कवरेज से पहले  भी जिस तरह से टीवी ने प्रतिबंध का पखवाड़ा चलाया, लगा नहीं कि उसके भीतर अपने पूर्वज माध्यमों की ताकत आ जाने से भी कोई अतिरिक्त लाभ समाज को मिला है. वो वहीं का वहीं खड़ा है बल्कि कई स्तरों पर पहले से और बदतर हो गया है. रॉबिन जैफ्री का भारत के समाचारपत्रों पर किया गया शोध फिर उस समाज की बारीक परख करता है जहां वो उत्तर साक्षर तो हो गया है लेकिन साक्षर नहीं. इस मामले में जैफ्री के अध्ययन पर भी गौर किया जाना चाहिए.

टेलीविजन जिन तथाकथित साक्षरों के बीच ढोल-नगाड़े पीटकर लोकतंत्र बचाना चाह रहा है या कहें कि प्रदर्शन कर रहा है, उसे उत्तर साक्षर से हटकर साक्षर या फिर सूक्ष्म साक्षर( micro-literate) होना होगा जो स्याह-सफेद का फर्क करने से आगे के चरण में शामिल हो सके और ये चरण वैचारिक बहुलता का सम्मान करने में निहित है. दुर्भाग्य से टीवी ने शुरुआती दिनों को छोड़ दें तो अब वो इसे बिल्कुल अलग और पिछड़ गया है.

बरखा दत्त की स्टोरी सी जुड़ी पोस्ट के लिए चटकाएं- http://mandimeinmedia.blogspot.in/2009/07/blog-post_26.html
दि हिन्दू की स्टोरी के लिए चटकाएं- http://www.thehindu.com/news/national/in-tihar-officials-feel-tinge-of-sorrow/article4400897.ece
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