पीडी ने फेसबुक पर अपने घर में मौजूद किताबों की तस्वीर लगायी और नीचे कैप्शन लिखा- मेरे घर में किताबों का एक तख्ता। उस स्टेटस पर लोग अपने-अपने तरीके से सोसा छोड़ने में लगे हैं। लेकिन मैंने जब इस तस्वीर के साथ स्टेटस को पढ़ा तो याद करने लग गया कि मेरा बचपन जिस घर में गुजरा,वहां कौन-कौन सी किताबें थी? हम किन किताबों के बीच बड़े हुए आपको जानकर हैरानी होगी कि कोई किताब नहीं होती मेरे घर में। मैं अपने घर का अंतिम संस्करण हूं,घर में भैया-दीदी सब पढ़नेवाले थे। ऐसे में यह कहना कि कोई किताब नहीं होते,गलत होगा। लेकिन पीडी ने जिन किताबों की तस्वीर लगायी है,वो परंपरागत तौर पर पढ़ने के संस्कार और आदत से जुड़ी हैं। उन किताबों की बातें हैं जो कि कोर्स का हिस्सा न होते हुए भी जानकारी बढ़ाने और बस पढ़ने के लिए रखी जाती है। मेरे घर में ऐसी एक भी किताब नहीं थी जो कि महज जानकारी बढ़ाने के लिए या शौकिया तौर पर पढ़ने के लिए खरीदी गयी थी। मैं ये बात आज दिन तक नहीं समझ पाया कि आखिर पापा ऐसा कौन सा संस्कार लेकर बड़े हुए कि किताबें जब तक कैंसर की दवाई जितनी जरुरी नहीं हो जाती,तब तक उसे खरीदना,फालतू में पैसे फूंकना होता। हर साल सारे भाई-बहनों के आगे की क्लास में जाने पर ऐसी जुगाड़ करते कि जैसे किसी के पायजामे को काटकर कच्छा बनाने का काम किया जा रहा हो,फुलपैंट को काटकर हाफ पैंट बनाया जा रहा हो। बड़े भैया और दीदी जिन किताबों को पढ़ चुकी होती,उससे ठीक नीचे वाले भइया या दीदी के पास सरका दिया जाता और मेरे पास आते-आते किताबों की ऐसी हालत हो जाती कि जैसे दंगे में किसी तरह बचाकर निकाली गयी हो। उसके उसके पन्ने ऐसे मुड़ जाते कि जैसे टेंट हाउस की चादर पर पता नहीं कितने लौंडों ने लोट-पोट किया होगा।
पापा एक-एक किताब को लेकर इतनी सख्ती बरतते कि कई बार लगता कि नई किताब आने से पहले मौत क्यों नहीं आ जाती? मजे की बात ये कि मेरे समय में अक्सर किताबें बदल जाती और मुझे कई किताबें नई खरीदनी होती। ये मेरे लिए जितनी खुशी की बात होती,उससे कई गुना ज्यादा तकलीफदेह भी। पुरानी किताबों के साथ बेहयाई करने पर आप कह सकते थे कि दीदी ने ऐसे ही दी थी मुझे लेकिन नई किताबों के साथ कोई बहाना नहीं होता। नतीजा हर 15 दिनों पर उसकी चेकिंग और थोड़ी भी उसकी हालत नाजुक जा पड़ी कि दे धमाधम। मां ऐसे ही वक्त पर हंसुआ आगे कर देती और कहती- काट के दू टुकरी कर दीजिए,न रहेगा बांस न बजेगा बांसुरी,रहेगा ही नहीं तो किताब कौन फाडेगा। पापा किताबों के साथ सख्ती सिर्फ इसलिए बरतते कि अगले साल उससे बदलकर आगे की क्लास की किताबें खरीदी जा सके या फिर आधी कीमत पर बेची जा सके। हम किताबों के पन्ने सालभर तक इसी समझ के साथ पलटते कि इसे कोर्स खत्म होने पर हर हालत में आधी कीमत पर बेचनी है।..और फिर मैं ही नहीं,ये पूरी संस्कृति का हिस्सा था कि किताब बेचकर या बदलकर आगे की क्लास की किताबें ली जाए। उस समय ऐसा करना बहुत अखरता था लेकिन आज जब मैं कॉन्वेंट स्कूल की मंहगी-मंहगी पिक्चर बुक और ग्लासी पेपर पर छपी किताबों को घर की मम्मियों को कबाड़ के हाथों बेचता देखता हूं तो कलेजा कटने लग जाता है। हम किताबों को इस तरह बेरहमी से बेचते हुए नहीं देख सकते थे। पापा कापियों के पन्ने गिनकर और उस पर नंबर लिखकर देते और भर जाने पर गिनकर वापस लेते। इस बीच जहां रस्किन बांड के प्रभाव में आकर जहाज या नाव बनाने की कोशिश की,दो-चार पन्ने खिसकाए नहीं कि फिर वही धमाधम। किताबों और कॉपियों को लेकर इतने सख्त माहौल में जिसकी परवरिश हुई हो,उसके लिए कोर्स के अलावे किताबों के बारे में सोच पाना अय्याशी ही माना जाता।
लेकिन जिस तरह जिनके पापा या दादाजी पढ़ाकू रहे हैं और उनके घरों में किताबें एक सम्पत्ति के तौर पर सहेजी जाती रही है,मेरे घर में उसकी जगह और मैं तो कहता हूं किसी विद्वान के घर की किताबों से कहीं ज्यादा संख्या में लाल रंग के बही-खाते होते। आला जिसे हम ताखा कहते,चारों तरफ उनमें भरी वही लाल बही-खाता। मेरे कई दोस्तों के पापा वकील थे,उनके घर भी लाल रंग की किताबें भरी होती लेकिन वो अलग दिखती। मैं मां से पूछता कि ये कानून की किताबें हैं। वो कहती- कानून की नहीं है,बाबा( पापा के पापा) के जमाने का हिसाब-किताब है। हर दीपावली के बाद ऐसे खातों की संख्या बढ़ती जाती। मैंने कई बार कोशिश की थी उन खातों को देखने की। हमारे लिए उसे पलटकर देखने की हसरत पोर्नोग्राफी से कहीं ज्यादा थी। बल्कि मैंने तो पहले पोर्नोग्राफी की किताब पढ़ी,तब जाकर इन बही-खातों को पलटा। एक-दो बार कोशिश करते पकड़ा गया तो पापा ने कहा-खबरदार जो इसके साथ छेड़छाड़ कियासखाल खींच लेंगे। मैं और मेरी सबसे छोटी दीदी सहम जाते। लेकिन जैसे पोर्नोग्राफी के प्रति तमाम जकड़बंदियों के बावजूद जानने की ललक बनी रहती है,वही हाल हमारा था। हम लगातार एफर्ट लगाते रहते कि इसे देखें। पापा इन बही-खातों के प्रति गजब तरीके से मोहग्रस्त होते,इसे हुंडी और खतियान कहते।
एक बार मैंने देखा कि मां ने एक बही से कुछ पन्ने निकालकर कॉपी सिलकर दे दी। तब मैं वाटर कलर से पेंटिंग करना सीख रहा था। मुझे झकझक पीले और मोटे पन्ने को देखकर लालच आ गया और तब सोचने लगा कि इस तरह कितने सादा पन्ने होगें इन बही-खातों में। एक बार दीवाली की सफाई में सारे बही-खाता जमा किए गए और उसे किसी एक जगह ठिकाने लगाने की कोशिश की गयी। सब बाहर निकला और थोड़ा बिखरा था। लिहाजा मैंने पलटना शुरु किया। हिन्दी में तारीख लिखी थी और संख्या भी हिन्दी में। हमें पढ़ने में दिक्कत होती। और बहुत ही अजीब स्ट्रक्चर में सारा हिसाब-किताब लिखा होता। मैंने समझना शुरु किया। हैरानी तो तब हुई जब 1955-56 ई में बाबा हाथ का लिखा जिस तरह का हिसाब-किताब था 1986 में पापा के हाथ का लिखा भी हूबहू वैसा ही। सिर्फ दोनों बहियों पर फर्म के नाम अलग थे। वही पीले पन्ने और काले रंग की स्याही से लिखे हिसाब-किताब। मैंने पढ़ा था बाबा के 1956 ई. में लिखा हिसाब-किताब। उसमें उधार लेनेवाले का नाम और पता लिखा होता,रकम भी। लेकिन सब बहुत ही अलग अंदाज में। बख्तियारपुर के गंगाराम ने 340 रुपये लिए थे लेकिन चुकाया नहीं था कभी। जिसने चुका दिया होता,उसके हिसाब पर क्रास लगा दिया जाता। एक बार बही-खाते ताखा से बाहर निकले तो पापा ने उसमें बहुत अधिक दिलचस्पी लेनी बंद कर दी। बस ये था कि करंट के 8-10 साल के हिसाब तब भी ताखा पर ही होते।
हमने सबसे पहले इन पुराने बही-खातों से खाली पन्ने निकालने शुरु किए जो कि बहुत ही पुराने पड़ जाने पर मुड़ते ही फट जाते। तब हम उसे मुठ्ठी में मरोड़कर चूरमा की तरह लोगों पर उड़ाते और ही ही-ठी ठी करते भाग जाते। फिर जिन हिसाब के आगे क्रास के निशान नहीं लगे होते,उनकी रकम एक कॉपी पर लिखते जाते और जोड़ते कि कितने पैसे उधार हैं। मां से पूछता- अच्छा मां ये बताओ कि जिन लोगों के उधार हैं,वो सबके सब मर गए होंगे क्या? पता तो लिखा है सबका,उसका कोई तो होगा बेटा,उसके बेटे का बेटा? मां पूछती- काहे,क्या करोगे जानकर? मैं कहता जो घर के थोड़ी दूर पर ही हैं,वहां तो जाकर ला ही सकते हैं। मां कहती खोपड़ी का इलाज करावे पड़ेगा तुम्हारा। कभी-कभी झल्ला जाती और कहती- अभी से ही पैसे-कौड़ी को इसी तरह मगरमच्छ की तरह दांत से पकड़े रहो,आगे काम देगा। दुनिया का बाल-बच्चा किताब कॉपी से लिखा-पढ़ी करके अक्ल-बुद्धि बढ़ाता है, इ है कि दौलत बटोरने का सोच रहा,हाय रे लक्ष्मीजी का चस्का। हाथ को कान तक ले जाती और बुदबुदाती- सुबुद्धि दीहो,ठाकुरजी,दीनानाथ। मां को इस बात की बहुत चिंता होती कि अभी से ही इस चक्कर में पड़ा तब पढ़कर कुछ नहीं कर सकेगा। वो किसी भी हाल में नहीं चाहती कि मैं समाज के बाकी लोगों की तरह दूकान में बैठकर साड़ी-ब्लाउज बेचूं। मेरा बेटा सरस्वती के कृपा से कमाएगा,खाएगा,लक्ष्मीजी के पीछे भागकर नहीं। हमने अपने बचपन का लंबा समय बाबा और पापा के इन बही-खातों के साथ सपने देखते हुए बिताया कि कितना हजारों-हजार जमा कर सकते हैं हम इसमें नोट किए उधार पैसे से। दूसरी तरफ मोटी-मोटी रकम का कर्ज देखकर सहम जाता कि किसी दिन कर्जा मांगने आ गया कोई तो?
पापा से एक बार डरते-डरते पूछा कि इस्लामपुर का रास्ता कहां से जाते हैं? पापा ने कहा- क्यों? मैंने बताया कि इस बही में लिखा है कि वहां के विनायकजी के पास 1200 रुपया बाकी है। उन्होंने कहा- तो? मैंने कहा- मांगने जाना चाहते हैं। पापा का पारा गरम हो गया,जो धमाधम शुरु किया कि वहीं पैंट में ही। मां सिर्फ इतना बोली- लतखोर है,पहिले मना किए तो नहीं माना। वैसे मुझे इस बात से बड़ी खुन्नस रहती कि कोई पापा का पैसा लेकर चुकाएगा कैसे नहीं? बाद में जब बड़ा हुआ तो इसी भाव से पापा बोर्ड के बाद फ्री होने की स्थिति में जैसे ही कहते- जोगेशरजी के यहां ढाई हजार बाकी है, 7 महीना हो गया। आगे कुछ कहते कि मैं कहता- जाएं पापा मांगने? पता नहीं क्यों,पापा को मेरी यही एक आदत पसंद आती,बाकी कुछ भी नहीं। कहते जाओगे,मैं कहता हां। आज फेसबुक पर तमाम लोगों को देखता हूं कि वो विरासत के तौर पर किताबों की चर्चा करते हैं। मेरे लिए विरासत किताबें नहीं,उधार के बही-खाता थे। मुझे खुद हैरानी होती है कि आज मेरे पास एडोर्नो,देरिदा,टेरी एग्लटन,वीवर,मैनचेस्नी,एम सी रॉबी,डगलस सहित आधा-गांव,मैला आंचल से लेकर नामव सिंह,रामविलास शर्मा,मुक्तिबोध की रचनावली कैसे है?
मेरे घर में पहली बार साहित्यिक किताब तब आयी थी जबकि मुझे संत जेवियर्स कॉलेज में एक दूकान की पर्ची देते हुए हजार रुपये की अफनी मनपसंद किताबें खरीदने के लिए कहा गया था और मैंने दूकानदार को साहित्य अकादमी से सम्मीनित रचनाकारों की लिस्ट पकड़ा दी थी और कहा था कि पहले से लेकर जहां तक हजार रुपये में आ जाए,दे दीजिए। मैं रांची में रहता था लेकिन हसरत थी कि ये सारी किताबें घर पर हो। बस मा की हनुमान चालीसा और ऐसी ही देवी-देवताओं की चुटका साहित्य को किनारे करके लगा दिया। आप हंसेगे लेकिन मां सेवासदन और तमस पर भी पूजा करते वक्त लाल टीका लगा देती। मैं मुस्कराता तो कहती- हंसों मत,हमको पता है कि इसमें गरीब-दुखिया के बारे में खिस्सा होगा, अहीर-मजदूर के बारे में लिखा होगा। हम एतना बूडवक थोड़े हैं कि पता नहीं है कि प्रेमचंद क्या लिखते हैं? फिर भी टीका लगा देते हैं कि कुछ भी लिखा हो,सुबुद्धि वाला बात ही होगा न। साहित्य को लेकर मेरी मां की कुछ ऐसी ही समझ थी। आज घर में उन खातों की जगह मेरी बहुत सारी किताबें देखकर लोग हैरान होते हैं। भइया लोग फैशनेबल दूकानदार हो गए तो सबकुछ नोटबुक में आ गया,बही खाता बाबा और पापा के जमाने तक ही सिमट गया। मैं इस बही-खाते को ही किताब की विरासत कहूं तो आप बुरा मान जाएंगे लेकिन यकीन मानिए,इसके हिसाब-किताब जोड़कर,पढ़कर,उन पैसों के बारे में सोचकर, कर्ज लेकर मर गए लोगों के बारे में जानने की बेचैनी की बदौलत ही मैंने प्रेमचंद को पढ़ा,रेणु के उन कपड़िया लोगों के बारे में पढ़ा और पचा गया जो किसी को तन ढंकने के लिए कपड़े नहीं देता लेकिन किसी को हारमोनियम का कवर बनाने के लिए कपड़े दे देता है। मैं उस समाज से इन बही-खातों को पलटते हुए ही उससे दूर होता चला गया और अपने को कर्ज में मिलनेवाले पैसे की कल्पना से कहीं ज्यादा सुखी महसूस करता हूं।
http://taanabaana.blogspot.com/2011/01/blog-post_04.html?showComment=1294151934059#c5871488575742344061'> 4 जनवरी 2011 को 8:08 pm बजे
आख़िरी में आपकी माँ का किताबों को टीका लगाना दिल को छू गया.
उससे पहले ही बात-बात पर होनेवाली धमाधम समझ नहीं आई. घर में बचपन से ही किताबों से भयानक अनुराग देखा. सिर्फ किताबें ही नहीं, पुरानी पत्रिकाओं को भी इस कदर सहेजा गया था जैसे भविष्य में उन्हें ऊंची कीमत पर बेचने के लिए योजना बनाई गयी हो. नया प्रतीक, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, पश्यंती, धर्मयुग, दिनमान, रविवार, रूसी पत्रिकाएं, चम्पक, पराग, मधु मुस्कान, टिंकल... थैंक यू पापा.
आज की तारीख में भोपाल के घर में दो हज़ार से ज्यादा किताबें हैं. सौ-डेढ़ सौ मेरे दिल्ली के दीवान में कैद हैं, वो क्या है न कि अब किताब पढ़े हुए अरसा हो गया है. सारा पढना स्क्रीन पर ही हो रहा है.
पिछले साल मेरी गैरहाजिरी में पिताजी ने कुछ अनुपयोगी किताबें ठिकाने लगा दीं थीं तो मेरे और उनके बीच जबरदस्त वाकयुद्ध हुआ जो ठीक नहीं हुआ... अंततः उन्हें मानना पड़ा कि उन्हें मुझसे पहले पूछ लेना चाहिए था.
जल्द ही किताबों की अलमारी की एक फोटो खींचकर फेसबुक पर लगानी पड़ेगी.
http://taanabaana.blogspot.com/2011/01/blog-post_04.html?showComment=1294164340438#c6083434991773066388'> 4 जनवरी 2011 को 11:35 pm बजे
PD ke facebook se yahan aaya. Mera experience PD se jyada aapke najdeek hai. :)
http://taanabaana.blogspot.com/2011/01/blog-post_04.html?showComment=1294168306547#c2007638258712887548'> 5 जनवरी 2011 को 12:41 am बजे
किसी मित्र ने सुझाया तो आकर पढ़ा ..और जाने क्या क्या याद आ गया.आपके लेखन का असर था या अपने अनुभव का पता नहीं.
बेहतरीन लेखन कहना ही पडेगा.
http://taanabaana.blogspot.com/2011/01/blog-post_04.html?showComment=1294172289884#c8554407979102762518'> 5 जनवरी 2011 को 1:48 am बजे
दोस्त, उस समय कुछ सूझ नहीं रहा था मगर मन में कई बातें घुमर रही थी.. उन सब बातों को अपने ब्लॉग पर उलटी कर आया.. :)
Thanks to you, क्योंकि तुम्हारी वजह से कई दिनों बाद मेरी एक पोस्ट बन गई.. :)
लिंक यहाँ है.
http://taanabaana.blogspot.com/2011/01/blog-post_04.html?showComment=1294195164021#c5991590563560465164'> 5 जनवरी 2011 को 8:09 am बजे
बढ़िया लिखा है... कई यादें ताज़ा हो गई हैं।
- आनंद
http://taanabaana.blogspot.com/2011/01/blog-post_04.html?showComment=1294196646479#c7125251573489324911'> 5 जनवरी 2011 को 8:34 am बजे
... saarthak charchaa !!
http://taanabaana.blogspot.com/2011/01/blog-post_04.html?showComment=1294246981358#c6055830543383864348'> 5 जनवरी 2011 को 10:33 pm बजे
आपका बही खाता पढ़कर अपनी किताबों की उधारी याद आ गई।
http://taanabaana.blogspot.com/2011/01/blog-post_04.html?showComment=1294256813178#c2958188570387361678'> 6 जनवरी 2011 को 1:16 am बजे
विनीत,
बहुत शुक्रिया इस पोस्ट के लिये, मन पुरानी यादों मे खो गया था। हमने एक लम्बी टिप्पणी (ब्लाग पर इतना लम्बी टिप्पणी अजीब लगती है) ईमेल की है, समय मिले तो पढना ।
http://taanabaana.blogspot.com/2011/01/blog-post_04.html?showComment=1294300746679#c4236324878761076876'> 6 जनवरी 2011 को 1:29 pm बजे
बहुत अच्छा लगा इस पोस्ट को पढ़कर। बहुत कुछ याद आ गया किताबों के नाम पर। पुरानी किताबें हमने भी बहुत दिन खरीद कर पढ़ीं हैं।
http://taanabaana.blogspot.com/2011/01/blog-post_04.html?showComment=1294320911262#c8517710612792719707'> 6 जनवरी 2011 को 7:05 pm बजे
मैं खो गया हूं.....बस यही कहूंगा (आपको पढ़ने के बाद)
http://taanabaana.blogspot.com/2011/01/blog-post_04.html?showComment=1294324060291#c805085547599467811'> 6 जनवरी 2011 को 7:57 pm बजे
wow man rocking........ first time tmhe read kiya mera bachpan bhi bahi khato k hisaab kitaab k sath beeta h isliye bahut apnapan sa laga
http://taanabaana.blogspot.com/2011/01/blog-post_04.html?showComment=1294458985152#c1164410628716648213'> 8 जनवरी 2011 को 9:26 am बजे
kahaani pasand aayi