कल यानी 31 दिसंबर को आजतक के 10 साल पूरे हो गए। इस मौके पर आजतक ने शुरुआती दौर से जुड़े लोगों की बाइट,उनकी फुटेज और चैनल की पिछले दस साल में कवर की गयी स्टोरी को गंभीरता से दिखाने के बजाय फिलर के तौर पर पेश किया। कार्यक्रमों के बीच-बीच में किसी की बाइट चला दी जाती और फिर मौजूदा कार्यक्रम अबाध गति से जारी रहता। अपने इस 10 साल के मौके पर आजतक ने जो खास कार्यक्रम दिखाया वो था राजू श्रीवास्तव की ओर से पेश की गयी टूटती खबर।
इस खबर की थीम थी कि राजू श्रीवास्तव बतौर आजतक संवाददाता चांद पर एलियन खोजने गए हैं और फिर आजतक के संवाददाता जैसे करते हैं बल्कि उनका मजाक उड़ाते हुए कार्यक्रम पेश किया। उसके बाद देशभर के रईसजादों के इलाके में,फार्म हाउस और होटलों में नए साल को किस तरह से सिलेब्रट किया जा रहा है,उसके लगातार 6-7 मिनट तक की फुटेज लगातार चलाता रहा। वो एक तरह से लाइव कवरेज ही थी जिससे कि चैनल ने घंटों अपना स्पेस भरा। मुझे नहीं पता कि इन कार्यक्रमों के साथ चैनल की कोई डील थी या फिर महज खर्चा बचाने के लिए ऐसा किया। कल आजतक को देखकर भारी धक्का लगा कि चैनल ने अपनी विरासत को भी दस साल के बाद सहेजकर नहीं रखा और ऑडिएंस के सामने पेश कर सका।
आजतक के 1995 में दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम के तौर पर शुरु होने से ठीक 10 साल बाद 2005 में भी चैनल ने खास कार्यक्रम दिखाया था। उसे देखते हुए लगा था कि वाकई एक नेशनल चैनल के तौर पर आजतक में कोई बात नहीं। ये सबकुछ भेल ही ब्रांडिंग के स्तर पर रहा हो। फिर भी,लेकिन सेटेलाइट चैनल के तौर पर 10 साल आजतक ने जो पूरे किए,वो अपने इस खास दिन को भूल गया। चैनल को ये नहीं भूलना चाहिए था कि साल के आखिरी में शीला की जवानी परखने और मुन्नी के बदनाम हो जाने की गाथा के बीच उसके खुद के लिए खास दिन था,बाजार के लिहाज से भी। अगर विरासत शब्द को छोड़ भी दें तो भी। लेकिन उसने इसका बेहतर इस्तेमाल नहीं किया या कहें कि भुना नहीं सका।
मोहल्लाlive पर मेरी लिखी पोस्ट दस साल तो हो गए, लेकिन भरोसा कहीं खो गया को लेकर नागार्जुन ने क्लासरुम लेक्चर के अंदाज में मुझे मीडिया का समाजशास्त्र समझाने की कोशिश की और आरोप लगाया कि मैं इस पोस्ट के बहाने आजतक को नास्टॉल्जिया के तहत देख रहा हूं जबकि मेरा अपना तर्क है कि आजतक के दस साल होने पर जो लिखा,उसका भी एक सामाजिक संदर्भ है। लिहाजा आजतक के दस साल पूरे होने और निजी मीडिया के बदलते चरित्र पर उस पूरे कमेंट को पोस्ट की शक्ल में आपसे साझा कर रहा हूं।
नागार्जुनजी
आप अपने बच्चों के जन्मदिन के दिन केक काटते हुए क्या ये कहते हैं कि तू अभी तक बेड पर शू शू करता है,मम्मा की बात नहीं करता,क्लासरुम में सिर्फ टीचर को ताड़ता रहता है,उनी बातें नहीं सुनता? आपका लौंडा कितना भी नालायक हो,आप उसके जन्मदिन पर उसे विश करते हैं,उसकी अच्छी आदतों को याद करते हैं और उन्हें आगे बढ़ने की कामना करते हैं। आजतक पर आज मैंने जो कुछ भी लिखा,वो उसके दस साल होने को लेकर है,कोई नास्टॉल्जिया का हिस्सा नहीं। मैंने खुद ही कहा है कि ये उसका हिस्सा लग सकता है क्योंकि मैंने जो कुछ भी लिखा है वो बहुत ही सब्जेक्टिव मामला है। आपने जिस तरह से मुझे मीडिया और बाजार के अर्थशास्त्र को समझाने की कोशिश की है तो जिस शख्स को इतनी जानकारी औऱ समझ है कि 1988 में भी न्यूजट्रैक की शुरुआत हुई तो भी वो धंधे का हिस्सा था,1995 में जब आजतक बीस मिनट के लिए आया तो भी धंधे का हिस्सा है,उसे इतनी समझ कैसे नहीं होगी कि एक स्वतंत्र 24 घंटे का न्यूज चैनल आया तो वो बाजार और धंधे का हिस्सा होगा? आप जिसे नास्टॉल्जिया और भक्तिभाव में आकर किया गया विश्लेषण कह रहे हैं,मामला ये नहीं है।
मैं जो समझ पा रहा हूं वो ये कि आजतक चैनल ने जिस दौर में इस इन्डस्ट्री में कदम रखा,उसमें उदारवादी आर्थिक व्यवस्था का दौर शुरु हो चुका था बल्कि कहें तो बहुत ही मजबूत तरीके से उसके पैर जम चुके थे। मीडिया संस्थान के भीतर इस बात की कॉन्फीडेंस आ गयी थी कि वो सरकार से सीधे-सीधे पंगा ले सकती है क्योंकि सरकार के भीतर के पावर गेम को प्रभावित करनेवाले और मीडिया के पैर मजबूत करनेवाले लोग एक ही थे जिसे कि हम कार्पोरेट के तौर पर रेखांकित करते हैं। मीडिया को इस बात की बेहतर समझ थी कि अगर वो सरकार को कटघरे में खड़ा करते हैं तो भी वो उसका बहुत कुछ नहीं बिगाड़ सकती क्योंकि उन्हें पता है कि पावर जेनरेट कहां से होने हैं? ऐसे में मीडिया ने खुले तौर पर राजनीतिक लोगों और सरकारी मशीनरियों से पंगा लिया और ऑडिएंस को ये लगा कि टेलीविजन के माध्यम से पत्रकारिता का स्वर्णयुग लौट आया है। उस वक्त की सच्चाई ये थी कि पब्लिक ब्राडकास्टिंग की जो निर्भरता सरकार पर थी,निजी मीडिया में वो निर्भरता शिफ्ट होकर कार्पोरेट पर आ गयी। मतलब ये कि निजी मीडिया जिस बात के लिए इसे कोसते थे,उससे मुक्त होकर कार्पोरेट की गोद में जा गिरे और राजनीतिक खबरों की ऐसी चीर-फाड की कि ऑडिएंस के बीच भरोसा जम गया कि निजी मीडिया चैनल दूरदर्शन से बेहतर काम करते हैं और तटस्थ हैं। लेकिन आप देखेंगे कि पावर सेंटर जो तेजी से बदलकर कार्पोरेट के हाथों में जा रहा था,आजतक ने या फिर किसी भी चैनल ने उस पर कभी हाथ नहीं डाला,उसकी आलोचना नहीं की? कार्पोरेट ने जिस-जिस क्षेत्र में अपना विस्तार किया,खबरों से वो क्षेत्र छूटता चला गया।
इसी दौर में बोतलबंद पानी की इन्डस्ट्री का विस्तार हुआ,सॉफ्ट ड्रिंक का बड़ा बाजार पैदा हुआ,रीयल स्टेट और बिल्डरों की दलाली बढ़ी और एक स्वतंत्र रुप से ब्लैक मार्केंट को मजबूती मिली,देश की जीडीपी खेती से हटकर इन्डस्ट्री से निर्धारित होने लगी लेकिन एक-एक करके इन सब सेक्टर से खबरें गायब होने लगी। चैनल ने सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक खबरों और स्टेट मशीनरी की छोटी-मोटी गड़बड़ियों का खुलासा करके ताल ठोंकने का काम किया और अपने को सरोकारी पत्रकारिता का नाम दिया। लेकिन जिस तेजी से कार्पोरेट पब्लिक स्फीयर के भीतर की चीजों को मीनिंगलेस,वाहियात और बेमतलब का करार दे रहा था,उसको लेकर कभी सवाल खड़े नहीं किए। चैनल ने जब स्टेट मशीनरी की गड़बड़ियों को सामने आने का काम किया तो उसके साथ ही इस बात के संकेत भी दिए कि ये पूरी तरह नाकाम हो चुकी है और विकल्प के तौर पर कार्पोरेट ढांचे से पब्लिक स्फीयर पनप रहे थे,उसे प्रोत्साहन मिलने शुरु हो गए। मतलब कि इस चैनल ने स्टेट मशीनरी की पब्लिक स्फीयर को अपदस्थ करके कार्पोरेट की ओर से बननेवाली पब्लिक स्फीयर को मजबूती दी और अकेले राजनीतिक खबरों की चीर-फाड करके भरोसे का मार्केट खड़ा किया।..
इस संदर्भ में अब इन चैनलों को देखें तो इनकी विश्वसनीयता तभी बन सकती है जबकि वो कार्पोरेट से बननेवाली पब्लिक स्फीयर पर चोट करनी शुरु करती है।..और वो ऐसा करेंगे,इसे आप भी जानते हैं। जिस राजदीप सरदेसाई ने नब्बे के दशक में पब्लिक ब्राडकास्टिंग और सरकार का मजाक उड़ाते हुए कहा था कि सरकार से हमें कोई लेना-देना नहीं है,वहीं राजदीप सरदेसाई 3 दिसंबर की एडीटर्स गिल्ड की परिचर्चा में प्रेस क्लब में खुलेआम कहते हैं कि हम कार्पोरेट औऱ मालिकों के दबाब के आगे मजबूर हैं तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वस्तुस्थिति क्या है? इसलिए मैं जिस संदर्भ में बात कर रहा हूं कि आजतक पहले क्या था और अब किस रुप में दिखाई दे रहा है,वो दरअसल मुनाफे के पैटर्न के बदल जाने का है।
अब बात रही पुण्य प्रसून वाजपेयी और शम्स ताहिर खान जैसे पत्रकारों के प्रति मोहग्रस्त होने की तो मैं साफ कर दूं कि आज मैं किसी चैनल में नौकरी करने जाउं तो मैं किसी भी हाल में उनसे प्रेरित होकर काम नहीं करुंगा। ऐसा इसलिए कि जिस किस्म की पत्रकारिता वो टेलीविजन में करना चाहते हैं,वो ही करने की स्थिति में नहीं है,उनके खुद के लिए स्पेस नहीं है तो फिर हम अपनी क्या बात करें? वो दौर ही खत्म हो गया। हां,हमने अपने जिन स्कूल डेज के सपनों की बात की है वो दौर ही ऐसा बना या फिर कहें कि कार्पोरेट की सवारी करते हुए बना दिया गया कि सच्ची और बेहतर पत्रकारिता( क्या होती है,आज दिन तक समझना मुश्किल ही रहा)का मतलब ही था स्टेट मशीनरी और सरकार की गड़बड़ियों को फाड़कर रख देना। राजनीतिक रिपोर्टिंग को सिलेब्रेट करने का दौर था। आज पुण्य प्रसून वाजपेयी,शम्स ताहिर खान या फिर लाल पत्थर युग के पत्रकारों की जो पीड़ा है वो पत्रकारिता के खत्म हो जाने की पीड़ा नहीं है,राजनीतिक पत्रकारिता के खत्म हो जाने की पीड़ा है। जो पुण्य प्रसून वाजपेयी आठ-दस घंटे तक सत्ता के बनने-बदलने को लेकर एंकरिंग किया करते,उन्हें रातभर एश्वर्या और अभिषेक बच्चन की शादी पर गिनती की फुटेज के बूते घंटों एंकरिंग करनी पड़ जाती है,उसकी पीड़ा है। पुण्य प्रसून वाजपेयी में काबिलियत इस बात की है कि उन्होंने अपनी इस छटपटाहट को एक जींस की शक्ल देने के लिए ठिकाने ढूंढ लिए है। नहीं तो ऐसा बिल्कुल नहीं है कि पत्रकारिता का दौर खत्म हो गया है।
पत्रकारिता का दौर अभी है और यही शुरु कर सकते हैं जब वो रिलांयस के बगीचे खरीदे जाने पर स्टोरी करने लग जाए,मिनरल वाटर की प्लांट पर स्पेशल रिपोर्ट करने लगें,स्टीट के धंधे पर खबर करें,मोबाइल कंपनियों की हेरा-फेरी का पर्दाफाश करें। जो ऑडिेएस अब माल,मल्टीप्लेक्स, कंडोम, एयरलाइंस की कन्ज्यूमर बन चुकी है,उनकी समस्याओं पर स्टोरी करनी शुरु करें। नेशन स्टेट की पब्लिक स्फीयर पर चोट करके इन्होंने अपने को एक ब्रांड के तौर पर स्थापित किया लेकिन उसकी विश्वसनीयता तभी बरकरार रह सकती है जबकि वो कार्पोरेट की ओर से बनी पब्लिक स्फीयर पर चोट करनी शुरु करेंगे। न्यू मीडिया का विस्तार इसी पर चोट करने के दावे के साथ हो रहा है। वो राजनीतिक से कहीं ज्यादा इन स्फीयर पर चोट कर रहा है। हमने इनका नाम बस इसलिए लिया कि वो नेशन स्टेट की पब्लिक स्फीयर पर चोट करते नजर आए। आज के संदर्भ में इनसे प्रेरित इसलिए नहीं हुा जा सकता कि वो मौजूदा पब्लिक स्फीयर पर चोट नहीं कर रहे।
अब सवाल खोए हुए स्वर्णिम इतिहास की तलाश की है जिसे कि आपने मेरे लिए व्यंग्य के तौर पर इस्तेमाल करते हुए भक्तिभाव शब्द का इस्तेमाल किया तो जो लोग इस समझ के साथ विश्लेषण करते हैं,वो दरअसल एक जमाना था कि अवस्था में आकर बात करने लग जाते हैं। 28 साल की उम्र में माफ कीजिएगा,मैं उस कैटेगरी में नहीं आता। आजतक ने कभी भी संतई की प्रेरणा से आकर काम नहीं किया। हां फिर भी उसे देखते हुए हम जो पत्रकार बनने की बात सोचते थे वो सिर्फ इसलिए कि वो कम से कम नेशन स्टेट को चैलेंज कर रहे थे। जबकि आज
नेशन स्टेट की मशीनरी को चैलेंज करना बंद हो गया है क्योंकि आज उसने खुद को भी मीडिया का एक क्लाइंट के तौर पर प्रस्तावित किया है। तमाम राजनीतिक पार्टियां और सरकारी एजेंसियां मीडिया की सवारी करके ही लोगों तक पहुंचना चाहती है। चुनाव आयोग तक को अपनी बात कहने के लिए पप्पू कांट डांस स्साला जैसे गाने की शरण में जाना पड़ता है। राजीव गांधी ने रेडीफ्यूजन पीआर एड एजेंसी की मदद से जिस चुनावी विज्ञापन का दौर शुरु किया,उसने चैनलों को राजनीतिक क्षेत्र में भी करोड़ों का धंधा दे दिया। स्टेट मशीनरी,राजनीतिक पार्टियां और सरकारी एजेंसियां मीडिया के लिए एक आसामी है,उनके बीच ग्राहक और दूकानदार का रिश्ता है। ऐसे में मीडिया सीधे तौर पर क्यों पंगा लें। नब्बे के दशक में इसलिए लिया क्योंकि उनसे कमाई नहीं हो सकती थी,फेयप बिजनेस के तौर पर। लॉबिइंग,सेटिंग और ब्लैक मेलिंग की बात नहीं कर रहा। अब इनसे कमाई होती है। इसके साथ ही अब राजनीतिक पार्टियों के लिए ये कोई मुश्किल काम नहीं रह गया है कि देश के दर्जनभर चमकदार पत्रकारों की फौज खड़ी करके एक चैनल शुरु कर दें।..इसलिए मेरी अपनी समझ है कि आजतक या किसी भी चैनल ने इन पर स्टोरी करनी बंद कर दी है तो उनके बीच का संबंध एक बिजनेस रिलेशन के दायरे में बंध चुका है। वो अपनी कमाई खो नहीं सकते।
इधर आप हमें जिस मीडिया के समाजशास्त्र को समझाने की कोशिश कर रहे हैं,जिसमें कि अध्यापकीय टोन ज्यादा,शेयरिंग एलीमेंट कम है तो यकीन मानिए इस देश में मीडिया की पढ़ाई दो ही तरीके से होती है- एक तो चौथा स्तंभ और दूसरा कि पूंजीवाद का पर्याय। हमने भी कुछ ऐसी क्लासें की है,इसलिए आपकी बात नई नहीं लगी। लेकिन चैनल के जिस कंटेंट पर पुण्य प्रसून जैसे मीडियाकर्मी अफसोस जाहिर कर रहे हैं,दरअसल वही चैनल की इकॉनमी है। कार्पोरेट का पब्लिक स्फीयर पहली ही लाइन में कहता है- जस्ट ब्रेक दि सीरियसनेस ऑफ नेशन स्टेट। यही कारण है कि हमें तमाम चीजें मनोरंजन,सिलेब्रेटी और प्रायोजित कार्यक्रमों के तहत डिफाइन होती नजर आती है। इसे समझने में मुझे कभी भी दुविधा नहीं रही। अब सबसे जरुरी बात है कि ऐसे में सो कॉल्ड ईमानदार मीडियाकर्मी क्या करे या फिर वो मीडियाकर्मी क्या करे जिसके लिए राजनीतिक खबरों में ही पत्रकारिता की जान बसती है? उसके लिए बस एक ही उपाय है कि वो साहस जुटाए और ऑडिएंस को बताए कि मीडिया की लक्ष्मण रेखा के जस्ट बाद 5 करोड़ में नहीं नाचेगी मुन्नी स्पेशल स्टोरी के अर्थशास्त्र को समझा दे। वो बिग बॉस पर लगी पाबंदी के ठीक बाद आधे घंटे तक पामेला एंडरसन की पार्शियल न्यूड पर बनी स्टोरी के तर्क को ऑडिएंस के सामने रख दे। 90 के दशक के पत्रकारों ने तो अपना काम कर दिया,राजनीतिक सत्ता को ठोक-बजाकर अपने को धारदार पत्रकार घोषित कर दिया। ये चुपचाप के जो ईमानदार पत्रकार हैं वो कोशिश करें कि दिल्ली में पानी की किल्लत को एमसीडी की नाकामी बताने के बजाय किनले,विस्लरी और एक्वाफीना के वाटरप्लांट पर चोट करें। उपभोक्ता आधारित ऑडिएंस के बीच सिर्फ नकली खोवा और मिठाईयों पर स्टोरी करके पत्रकारिता की बात नहीं की जा सकती।..औऱ नहीं तो फेयर एंड लवली और पांडस की क्रीम की तरह ऐसी आदत पैदा करें कि करोड़ों उपभोक्ता ये जानते हुए बी कि लगाने से गोरे नहीं होंगे,नियमित खरीदते रहते हैं। हमने तो आजतक को इसी तौर पर याद किया,इसमें कोई नास्टॉल्जिया,किसी पत्रकार के प्रति भक्तिभाव से रत होने का अंदाज नहीं था।
हां ये जरुर था कि जैसे आप अपने बच्चे को वर्थ डे पर उसकी बुरी आदतों का पुलिंदा नहीं पटक सकते,उसके बेड पर शू-शू करने से अपने साथ-साथ अपने बाप का भी पायजामा गीला करने का जिक्र नहीं कर सकते,आजतक की वर्थडे पर मैंने भी ऐसा नहीं किया। इसका मतलब ये बिल्कुल नहीं कि हमने उसका पक्ष लिया। हम मीडिया की बात उसके खत्म होने के लिए नहीं,उसके बेहतर होने के लिए करते हैं।.मुझे लगता है नागार्जुनजी,आप मुझे समझ पाएंगे।
विनीत
http://taanabaana.blogspot.com/2011/01/blog-post.html?showComment=1293889449865#c927029859612916456'> 1 जनवरी 2011 को 7:14 pm बजे
जब किसी भी चैनल को ये पक्का पता लग जाता है कि वो नंबर एक है और उनका कोई कुछ बिगाड़ भी नहीं सकता, तो पैसा बचाने के लिए नौसिखियों की भीड़ जुटा लेने से इसी तरह की जुगाली बचती है..
http://taanabaana.blogspot.com/2011/01/blog-post.html?showComment=1293965693226#c8131567764540865457'> 2 जनवरी 2011 को 4:24 pm बजे
एक ऑडियंस के तौर पर हम जैसों लोगों को भी निराशा हुई. यह उम्मीद थी कि आजतक के दस साल पूरे होने पर आजतक के सफरनामे पर कोई शानदार पैकेज देखने को मिलेगा. लेकिन निराशा हुई. हमारी उत्सुकता धरी - की - धरी रह गयी. पता नहीं आजतक ने ऐसा क्यों किया... मुझे नहीं लगता यह मामला महज आर्थिक था. बस पुराने फूटेज को ढूंढ कर इस्तेमाल ही करना था. इस मामले में आजतक की क्या सोंच रही यह समझना जरा कठिन है....
http://taanabaana.blogspot.com/2011/01/blog-post.html?showComment=1294134581621#c8639305306822626209'> 4 जनवरी 2011 को 3:19 pm बजे
चैनल भी स्वार्थी हैं। कभी अपना निजी स्वार्थ देखते हैं, कभी किसी से रिश्तेदारी निभाते हैं, कभी celebrities की जी-हुजूरी तो कभी सत्ता में बैठे तानाशाहों की हुक्म उदूली करते हैं। क्या उम्मीद रखी जाए इनसे ।