चाट-समोसे के ठेले का नाम "आत्मनिर्भर समोसा चाट" देखकर मैं एकदम से प्रभात की स्कूटी से कूद गया। जल्दी से कैमरा ऑन किया और दो-तीन तस्वीरें खींच ली। मेरा मन इतने से नहीं माना। मैं जानना चाह रहा था कि आमतौर पर चाट,समोसे,फास्ट फूड और मोमोज जैसी चीजें बेचनेवाले ठेलों के नाम हिंग्लिश में हुआ करते है,फिर इसने इतना टिपिकल नाम क्यों रखा है? गरम-गरम समोसे तल रहे हमउम्र साथी से मैंने आखिर पूछ ही लिया-ये बताओ दोस्त,आपने ठेले का नाम आत्मनिर्भर चाट भंडार क्यों रखा है? उसने पीछे की तरफ इशारा करते हुए बताया कि वो भइया बताएंगे। मैंने पीछे की तरफ देखा। उस दूकान के दो दरवाजे खुलते हैं-एक पुरुलिया रोड की तरफ जहां कि संत जेवियर्स कॉलेज,उर्सूलाइन कॉन्वेंट से लेकर रांची शहर के तमाम स्कूल-कॉलेज हैं और दूसरा दरवाजा संत जॉन्स स्कूल के अंदर की ओर। आगे के दरवाजे से हम जैसे राह चलते लोग सामान खरीद सकते हैं जबकि पीछे के दरवाजे से सिर्फ स्कूल के बच्चे ही चॉकलेट,पेटिज,कोलड्रिंक,चिप्स वगैरह खरीदते हैं। पूरे पुरुलिया रोड में जहां कि एक से एक अंग्रेजी नाम से स्कूल,कॉलेज और संस्थान हैं ऐसे में सत्य भारती के बाद ये ठेला ही है जो होर्डिंग्स और दूकानों के नाम को लेकर किसी भी हिन्दी-अंग्रेजी के मसले पर सोचनेवाले को अपनी ओर बरबस खींचता है।
ठेले के इस टिपिकल हिन्दी नाम के पीछे की कहानी बताते हुए संजय तिर्की ने कहा कि हमलोगों के एक भैइया है-धनीजीत रामसाथ। वो भइया समाज के विकलांगों के लिए कुछ करना चाहते हैं। इसलिए पहले उन्होंने प्रेस खोला। लेकिन बाद में कई अलग-अलग चीजों पर भी विचार करने लगे। अब देखिए-विकलांगों के लिए सरकारी नौकरी में कई तरह की सुविधाएं और छूट है। लेकिन ये फायदा तो उसी को मिलेगा न जो कि पढ़ा-लिखा है या फिर सरकारी नौकरी की तरफ जाना चाहता है। समाज विकलांगों का एक बड़ा वर्ग है जो कि इस नौकरी लायक नहीं है। उसे हर-हाल में छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरी करने गुजारा करना होता है। ये लोग जब किसी दूकान वगैरह में काम मांगने जाते हैं तो सब यही कहता है कि-ये तो अपाहिज है,ये भला क्या काम करेगा। इसलिए भइया ने सोचा कि ऐसा कुछ शुरु किया जाए जिसमें कि इनलोगों को भी काम में लगाया जाए। ऐसे ही इस तरह से चाट के ठेले की शुरुआत हुई। संजय तिर्की संत जॉन्स स्कूल की जमीन पर बनी जिस दूकान को चलाते हैं उसका भी नाम आत्मनिर्भर स्टोर है जिसे कि रोमन लिपि में लिखा गया है। इसलिए एकबारगी वो अंग्रेजी लगता है लेकिन दूकान के आगे के ठेले का नाम देवनागरी लिपि में है।
मेरे इस सवाल पर कि आज तो इतने सारे अंग्रेजी के अच्छे-अच्छे नाम है जो कि सुनने में ज्यादा स्टैण्डर्ड और बोलने में ज्यादा सहज लगते हैं फिर आपने इतना टिपिकल नाम क्यों रखा? संजय तिर्की ने जबाब दिया कि ये सिर्फ एक ठेले का नाम नहीं है,एक संस्था है जिसके तहत हम विकलांगों के लिए काम करते हैं। हम सब आत्मनिर्भर होना चाहते हैं औरों को भी करना चाहते हैं इसलिए यही नाम रखा। दूसरे नाम रख देने पर वो चीज नहीं हो पाती।
एक टिपिकल हिन्दी नाम के पीछे संजय का तर्क मुझे बहुत ही साफ लगा। ये किसी भी भाषाई दुराग्रहों से अलग है। इस नाम के पीछे कोशिश सिर्फ इतनी भर है कि संदर्भ जिंदा रहे। इसके भीतर अंग्रेजी-हिन्दी की कोई भी बहस शामिल नहीं है। नहीं तो अकादमिक बहसों की तो छोड़िए,आम आदमी को समझाने और बताने के लिए जिस हिन्दी का प्रयोग किया जाता है उसमें दुनियाभर की पॉलिटिक्स,बेहूदापन और चोचलेबाजी शामिल है।
कल अंबेडकर कॉलेज से गुजरते हुए मैंने सीलमपुर के इलाके में बने डस्टबिन के लिए 'डलाव'शब्द बहुत ही बड़े-बड़े अक्षर में लिखा देखा। पहले तो कुछ समझ ही नहीं आया। लगा कि कुछ मात्रा छूट गयी है लेकिन बाद में उल्टी तरफ अंग्रेजी में डस्टबिन लिखा देख समझ पाया। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन में नए-नए बोर्ड लगे हैं। वहां की कहानी और भी दिलचस्प है। उपर से नीचे की तरफ उतरने वाली सीढ़ी के पास एक बोर्ड लगा है। एक तरफ लाइन से हिन्दी में लिखा है और तीर के निशान दिए गए हैं। दूसरी तरफ अंग्रेजी में नाम लिखा है और तीर के निशान दिए गए हैं। जिधर हिन्दी लिखा है उधर हिन्दी के ऐरो दिए गए हैं और जिधर अंग्रेजी लिखी गयी है वहां हिन्दी से उल्टी दिशा में तीर के निशान दिए गए हैं। मतलब ये कि अगर आप हिन्दी के निर्देश का पालन करते हैं तो कहीं और उतरेंगे और अंग्रेजी का फॉलो करने पर कहीं और। भाषा के बदलने के साथ ही आपका गंतव्य बदल जाएगा।
देशभर के दर्जनों एनजीओ हैं जो कि बहुत ही चमत्कारिक ढंग से नाम रखते हैं। उनका शार्ट फार्म टिपिकल हिन्दी में होता है। लेकिन उसके फुल फार्म अंग्रेजी में होते हैं। लोगों की जुबान पर वो हिन्दी नाम हो और सांस्थानिक तौर पर अंग्रेजी में उसकी व्याख्या। नामों की इस तरह की चोचलेबाजी के बीच बहुत तरह के पचड़े,फैशन,सुविधा है। रवीश कुमार मोबाईल पत्रकारिता के जरिए इसे लगातार बता रहे हैं लेकिन संजय तिर्की के सादगी से दिए गए जबाब पर गौर करना जरुरी है कि- बाकी नाम में वो बात नहीं होती। यानी दूकानो,ठेलों,निर्देशों के नाम और शब्द के पीछे संदर्भों का जिंदा रहना जरुरी है।
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http://taanabaana.blogspot.com/2009/12/blog-post_22.html?showComment=1261466162605#c4733759682804098174'> 22 दिसंबर 2009 को 12:46 pm बजे
कमाल की नजरें हैं आपकी ..इतनी बारीकी से देखने के लिए बधाई.
http://taanabaana.blogspot.com/2009/12/blog-post_22.html?showComment=1261550790331#c168094677463388340'> 23 दिसंबर 2009 को 12:16 pm बजे
"शब्द के पीछे संदर्भों का जिंदा रहना जरुरी है।"
आप सही फरमाते है जी।
http://taanabaana.blogspot.com/2009/12/blog-post_22.html?showComment=1261654821108#c1310231823876200701'> 24 दिसंबर 2009 को 5:10 pm बजे
bahut khub utsukata ki parakashtha hi is umda jankari ko nikal lai hai. aap ki is utsukata ko salaam.
http://taanabaana.blogspot.com/2009/12/blog-post_22.html?showComment=1261716290824#c4463511496244026870'> 25 दिसंबर 2009 को 10:14 am बजे
बढ़िया पोस्ट | समोसा ही नहीं भाषा को भी आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में , वह ठेला और दूकान |
http://taanabaana.blogspot.com/2009/12/blog-post_22.html?showComment=1261916437147#c2744946132635226311'> 27 दिसंबर 2009 को 5:50 pm बजे
ठेला विमर्श अच्छा लगा। अच्छी लगी आप की खोजी दृष्टि और उसके बाद की बातें।
जिन्दगी ऐसे ही 'जिन्दा' है क्यों कि कहीं सम्वेदनाओं की साँसें अभी चल रही हैं। मुझे लगता है चलती रहेंगी।