जिस मूल्य को लेकर तहलका काम कर रहा है, जिस बात को लेकर वह इलीट लोगों के बीच ट्रू जर्नलिज्म का ढोल पीट रहा है, आपको नहीं लगता कि वह औरों से भी घटिया काम कर रहा है। अब बताइए तहलका को क्या जरुरत पड़ गयी है कि जहां भी रेडलाइट है वहां वह सैंडविच ब्ऑय से मैगजीन बिकवाए। आपको क्या लगता है कि जिस रेडलाइट पर ये बच्चे तहलका के इश्यू लेकर आपसे-हमसे घिघियाते फिरते हैं, क्या कभी तरुण तेजपाल की नजर नहीं पड़ती होगी। वो तो अपनी एसी गाड़ी से आराम से गुजर जाते होंगे.
एक न्यूज एजेंसी में काम करनेवाले मेरे एक साथी ने जब अपनी झल्लाहट मेरे सामने रखी तो अचानक से कोई तर्क मेरे दिमाग में नहीं सूझ रहा था कि मैं क्या बोलूं। मैं अब तक सिर्फ इतना जानता हूं कि तहलका एक हद तक ट्रू जर्नलिज्म कर रहा है. आप तहलका के मुकाबले बाकी के मीडिया हाउस में देख लीजिए- आदिवासी, गुजरात नरसंहार में तबाह हुए मुसलमानों, देश के किसानों और हाशिए पर के लोगों की कितनी नोटिस ली जाती है। मेरा दोस्त अड़ा हुआ था. चलो मान लिया कि वो उन सब की नोटिस ले रहा है जिनतक नेता भी इस लोभ से कि वोट मिलेंगे, नहीं पहुंचते, पत्रकारों की कौन बात करे।
मैंने एक ही बात कही- देखो, मामला ऐसा है कि अब जो भी मीडिया हाउस,संस्थान या इन्टल लोग अच्छी बातें कहते और लिखते हैं, वो दरअसल समाज के भले के लिए कह रहे हैं, इससे सामाजिक जागरुकता आएगी, ऐसा उनके दिमाग में नहीं होता। यह सब लिखना और कहना उनके लिए नॉलेज प्रोड्यूस करना है, विचारों का उत्पादन भर है औऱ वो उत्पादन भर के लिए ही जिम्मेदार हैं। मसलन एक पत्रकार भ्रष्टाचार के विरोध में देशभक्ति पैदा करने के लिए जिम्मेदार है। उसकी रिपोर्टिंग में कितना प्रोफेशनलिज्म हैं कि वह ऑडिएंस के बीच यह भाव पैदा कर सके, उसकी काबलियत बस इतने भर से तय होती है कि ऐसा करने में वो किस हद तक सफल हो पाया है। जरुरी नहीं है कि वह खुद भी ऐसा ही व्यवहार करे। जो विचार और संदेश वो आंडिएंस को दे रहा है, उसे खुद भी मानने के लिए बाध्य नहीं है। अगर वो ऐसा नहीं करता है तो उसकी प्रोफेशनलिज्म मारी जाएगी।
प्रोफेशनलिज्म एरा की एक बहुत बड़ी शर्त है कि लोग जिस चीज का उत्पादन कर रहे हैं उसको लेकर भावुक न हो जाएं। तुमने देखा है नोएडा और गाजियाबाद के किसी फैक्ट्री के मजदूर को कि वह जूते बनाने के बाद उसको लेकर भावुक हो गया हो। ऐसा है कि वह अगर नाइकी के जूते बना रहा है तो बाध्य है कि वो भी उसी कंपनी के जूते पहने ? उसका काम वहीं से खत्म हो जाता है तब वह बिकने लायक जूते बना देता है, दैट्स ऑल। फिलहाल अगर इस लिहाज से तहलका के सैंडविच ब्ऑय द्वारा बेचे जाने की बात को देखो तो मुझे नहीं लगता कि तुम्हें तरुण तेजपाल पर बहुत गुस्सा आएगा।....कहने को तो मुझे जो लगा, मैंने अपने दोस्त को कह दिया लेकिन इसी कड़ी में एक बात और याद आ गयी।
मेरे एरिया के तहलका डिस्ट्रीब्यूटर ने बातचीत में एक बार मुझे बताया कि तहलका चार लाख से कम के विज्ञापन नहीं लेती है। उसके बताने का भाव कुछ इस तरह से था कि वह बाकी के मीडिया हाउस से तहलका को अलग करना चाह रहा हो। मतलब ये कि यह कोई हिन्दी चैनल नहीं है कि तीस रुपये की चड्डी से लेकर चालीस रुपये के हवाई चप्पल तक का विज्ञापन ले ले। तिसपर कि अभी हाथरस के शर्तिया इलाज का विज्ञापन आना बाकी है।..तहलका की औकात समझने-समझाने के लिए इतना काफी था।..और वैसे भी किसी भी मैगजीन, अखबार और चैनल की हैसियत इसी से बनती ही है कि वह किस-किस मंहगे उत्पादों के विज्ञापन जुटा ले रहा है।
अब बारी पत्रकारों को दी जानेवाली सैलरी पर थी। मैंने कहा कि- सुना है, यहां काम करनेवालों को मोटी रकम मिलती है। इतनी कि कोई पत्रकार चाहे तो रबर की तरह दो-चार महीने में गाड़ी की साइज बढ़ा सकता है। अबकी मेरे दोस्त का पारा और गरम हो गया। लीजिए, अब देखिए। दुनियाभर की चीजों पर पैसा खर्च करने के लिए तहलका के पास पैसा है लेकिन डिस्ट्रीव्यूशन सिस्टम दुरुस्त करने के लिए पैसा नहीं है। आप सोचिए न कि जिस गरीब और अनाथ बच्चों की अंदर स्टोरी छपी होती है, मोटे विज्ञापनों के दम पर एकदम चिकने झकझक कागजों पर, उसे देखकर बच्चों पर क्या बितती होगी। मैंने भी जोड़ा- और कभी-कभी तो कवर पेज पर ऐसे ही बच्चों की तस्वीरें भी होती है। ट्रू जर्नलिज्म का फंड़ा ही है-देश की एक लाचार तस्वीर।
नोट- सैंडविच ब्ऑय मार्केटिंग का शब्द है। कम उम्र के बच्चों का ऐसा समुदाय जिसे मार्केटिंग एजेंसियां रेडलाइट या फिर भीडभाड़ इलाके में मैगजीन या किताबें बेचने के लिए पकड़ती है। इसके जरिए माल बेचना आसान होता है। संभव हो इसमें कमीशन को लेकर बचत भी ज्यादा होती हो। दिल्ली में तो मैंने कई जगहों पर फूल की जगह पाइरेटेड आर्गुमेंटेटिव इडियन, गॉड ऑफ स्माल थिंग्स सहित तहलका, आउटलुक और इंडिया टुडे जैसी पत्रिकाएं बच्चों को बेचते हुए देखा है। यहां पर आप मैगजीन की गुणवत्ता के कारण नहीं, इन बच्चों से पिंड छुड़ाने के लिए खरीदते हैं। आप पाठक की हैसियत से नहीं दाता की हैसियत से खरीदते हैं क्योंकि ये बच्चें बेचते नहीं लगभग भीख मांगते हैं। अब कोई कहे कि तहलका सहित बाकी पत्रिकाएं भीख मांगने की संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं तो ये तो वो ही जानें।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/09/blog-post_29.html?showComment=1222670100000#c9107785308829988907'> 29 सितंबर 2008 को 12:05 pm बजे
बुद्धिजीवियों पर करारी चोट है-यह सब लिखना और कहना उनके लिए नॉलेज प्रोड्यूस करना है, विचारों का उत्पादन भर है औऱ वो उत्पादन भर के लिए ही जिम्मेदार हैं।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/09/blog-post_29.html?showComment=1222690200000#c1103315361536675254'> 29 सितंबर 2008 को 5:40 pm बजे
मैंने एक ही बात कही- देखो, मामला ऐसा है कि अब जो भी मीडिया हाउस,संस्थान या इन्टल लोग अच्छी बातें कहते और लिखते हैं, वो दरअसल समाज के भले के लिए कह रहे हैं, इससे सामाजिक जागरुकता आएगी, ऐसा उनके दिमाग में नहीं होता। यह सब लिखना और कहना उनके लिए नॉलेज प्रोड्यूस करना है, विचारों का उत्पादन भर है औऱ वो उत्पादन भर के लिए ही जिम्मेदार हैं।
विनीतजी, आपने अहम सवाल खडे किए हैं। आज पत्रकार तमाम नैतिकता के सवाल उठाते है लेकिन वे स्वयं अनैतिक आचरणों में लिप्त होते हैं।
http://taanabaana.blogspot.com/2008/09/blog-post_29.html?showComment=1222704120000#c3165630448866486963'> 29 सितंबर 2008 को 9:32 pm बजे
प्रभावी एवं विचारणीय आलेख!!