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गुंडे,मवालियों और बाजार के दलालों के बीच हिन्दी एक असहाय स्त्री की तरह खड़ी है। अगर आप इन दिनों हिन्दी के नाम पर मर्सिया पढ़नेवालों पर गौर कर रहे हैं तो अपनी हिन्दी को लेकर इससे कोई अलग छवि नहीं बनने पाती है। हाय हिन्दी,आय हिन्दी करके कराह रहे, तड़प रहे हिन्दी मठाधीशों से हिन्दी अखबार भरा पड़ा है। इन सबके बीच हिन्दी के जिन मठाधीशों को सालभर तक कोई नहीं पूछता,हिन्दी पखवाड़े के लिए कोई बड़ा मठाधीश नहीं मिल पाने की स्थिति में इन्हें ही पकड़ लिया गया है। आखिर हिन्दी पखवाड़ा है,किसी न किसी से तो मातमपुर्सी करवानी ही है। ये वही स्थिति है जब पितृपक्ष में फुर्सत में रहे ब्राह्मणों की क्राइसिस हो जाती है जबकि श्राद्ध कराना जरुरी होता है। क्या किया जाए। तब दो ही उपाय बचते हैं-या तो जाति से ब्राह्मण रहे बुतरु पंडिजी को ही पकड़ लिया जाय,मंत्र भले ही न पढ़ पाते हों,हाथ से छू तो देंगे कम से कम। या फिर उम्र पार कर चुके लोथ पंडिजी को ही पकड़ लिया जाए,जीवन भर श्राद्ध कराया है,कुछ तो जस होगा ही। हिन्दी पखवाड़े के दौरान हिन्दी के माठाधीशों की ऐसी ही क्राइसिस हो जाती है तब लोथ(जो चलने-फिरने लायक नहीं होते, यहां जो पढ़ने और अपडेट होने की स्थिति में नहीं होते) मठाधीश को पकड़ लिया जाता है। हिन्दी में बुतरु को शामिल करने का प्रचलन अभी शुरु नहीं हुआ है। लोग लोथ से ही काम चला लेते हैं। खैर,लिफाफे की जोर से ये मठाधीश कुछ न कुछ तो बोल जाते हैं,आयोजक बुलाते समय आपस में बात करते हैं-अरे,कुच्छो न कुच्छो तो बोलेंगे ही,बुला लीजिए,अब अंतिम समय में कहां अपडेट बाबा को खोजें,सब तो चैनल और अखबार ने तो पहले ही हथिया लिए हैं। लेकिन इनका बोलना वैसा ही होता है,जैसा कि पूर्णिमा में सत्यनारायण स्वामी की कथा का पढ़ा जाना। सालों से वही कहानी,न कथानक के स्तर पर कोई बदलाव और न ही कंटेट के स्तर पर कोई नयापन। कोई मठाधीश चाहे तो एक ही बात का लेमिनेशन कराके रख ले और एक सभा करके तय कर ले कि हर साल इसी बात को मंत्र की तरह दुहराया जाएगा। हिन्दी को सती-सावित्री और बाजार के दलालों से मुक्त रखने के लिए यह उपाय जोरदार है।दूसरी स्थिति है उनलोगों की जो हिन्दी को एक ऐसी स्त्री के रुप में देख रहे हैं जिसे कल तक रोटी-भात के पैसे नहीं होते थे,आज वो सप्ताह में आराम से एकबार फेशियल करा रही है। बाकी के कॉस्ट्यूम्स और हर्बल से भरा है बैनिटी बॉक्स। हिन्दी न केवल फल-फूल रही है बल्कि बाजार के सहयोग से धीरे-धीरे मॉड और स्लीम होती जा रही है। हिन्दी की इस फीगर पर अपनी राष्ट्रपति की भी नजर गयी और उन्होंने बताया कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने हिन्दी को बड़े पैमाने पर अपनाया है,वे विज्ञापनों में हिन्दी का प्रयोग करने लगे हैं। इसका श्रेय प्रवासी भारतीयों को जाता है जिन्होंने हिन्दी का विस्तार किया। मेरी तरफ से प्रवासी भारतीयों को शुक्रिया जिन्होंने हिन्दी को ऐसा लुक दिया। हालांकि हिन्दी के इस नए रुप पर खुश होनेवाले लोगों की संख्या अभी बहुत ही कम है, जो खुश हो रहे हैं उन्हें हिम्मत जुटानी पड़ रही है कि अगर कोई उन्हें बाजारवादी भी कह देंगे तो रिएक्ट करने के बजाए चुपचाप अपना काम करते रहना है।इसी हो-हल्ले के बीच जहां मैंने खुद हिन्दी पर कुछ भी पढ़ना-गुनना छोड़ दिया। मेले-ठेले से मुझे बहुत तकलीफ होती है,कौन रगड़ मार के चला जाए, इसलिए दोने बाजार में खरीदने के बाद घर लाकर ही खाना पसंद करता हूं। सब सामान जुटा रहा हूं और फुर्सत से पढ़ने की सोच रहा था कि इसी बीच शंभूनाथ ने लिख दिया कि हिन्दी के विकास में जितने रोड़े हिन्दी अधिकारी अटकाते हैं उससे कम रोड़े हिन्दी के मास्टर लोग नहीं अटकाते(जनसत्ता,१५ सितंबर,०८), तब सोचा, नहीं भाई इत्मीनान वाला फंडा छोड़ों,कुछ अभी हो चख लो, नहीं तो सेरा जाने पर(ठंडा होने को सेरा जाना कहते हैं) मजा नहीं आएगा। सो दिल्ली हादसों के बीच हिन्दी को लेकर बैठ गया।
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2 Response to 'लोथ बाबाओं के बीच स्लीम होती हिन्दी'
  1. जितेन्द़ भगत
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/09/blog-post_15.html?showComment=1221464820000#c6611491232597207449'> 15 सितंबर 2008 को 1:17 pm बजे

    मुझे लगता है अब हि‍न्‍दी दि‍वस को दशहरा, होली, दीवाली की तरह मनाया जाना चाहि‍ए। क्‍या पता इससे लोगों का ध्‍यान और भी आकर्षित हो।

     

  2. pravin kumar
    http://taanabaana.blogspot.com/2008/09/blog-post_15.html?showComment=1221475560000#c5729137146891422545'> 15 सितंबर 2008 को 4:16 pm बजे

    achha hai bhai....tumhari ladai saaf-saaf hai

     

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