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मेरे घर में कांटा-चम्मच से लेकर कूकर,कडाही, डब्बा-डिब्बी, एसी,फ्रीज,टीवी,वॉशिंग मशीन सब हिन्दी की कमाई से है. पूंजी के नाम पर मीडिया और कल्चरल स्टडीज की जो सैंकड़ों अंग्रेजी में किताबें हैं, वो सबकी सब हिन्दी की कमाई है..आपको मेरा लिखा, मेरी जो भी जैसी समझ है जिसे आप वक्त-वेवक्त सराहते हैं, वाया हिन्दी ही बनी है. मुझे नहीं पता कि गर मैं इकॉनमिक्स का छात्र होता, पॉलिटिकल साइंस पढ़ा होता, एमबीए,बीबीए, बीसीए किया होता तो आज कहां होता या क्या कर रहा होता ? लेकिन ये जरूर महसूस करता हूं कि शायद इतना आजाद, बिंदास और छोटी-छोटी चीजों में खुशियां निकालकर आपके आगे धर देने का न तो वक्त होता और न ही शायद मिजाज. किसी मजबूरी के तहत हिन्दी नहीं पढ़ी, एक से एक डफर साइंस का बिल्ला लटकाकर चौड़ा होते रहे..लेकिन
मैंने अपने जिस संत जेवियर्स कॉलेज से ग्रेजुएट तक की पढ़ाई की, अपने इकॉनमिक्स, पॉलिटिकल साइंस, हिस्ट्री और यहां तक कि अंग्रेजी साहित्य के शिक्षकों का दुलारा था. मेरे बाकी के दोस्त ग्रेजुएशन के वक्त आए थे जबकि मैंने इंटरमीडिएट की पढ़ाई भी इसी कॉलेज से की थी..श्रीवास्तव सर जो कि अब इस दुनिया में नहीं रहे, मुझे अलग से इंग्लिश लिटरेचर दिया करते. पॉलिटिकल साइन्स के आर.एन सिन्हा को यकीन था कि मैं पॉलिटिकल साइंस के अलावा कुछ और ऑनर्स ले ही नहीं सकता. चौबे सर की मैक्रो इकॉनमिक्स का मैं अच्छा छात्र था. फ्रैकलिन बाखला को लगता था मैं वर्ल्ड हिस्ट्री में पीएचडी करुंगा..लेकिन मैंने इन सबको निराश किया. सीधा गिरा हिन्दी विभाग में
मरने के कुछ वक्त पहले श्रीवास्तव सर ने एक दिन कहा- आइ एम रियली प्राउड ऑफ यू..यू विल डू वेटर इन योर लाइफ..यू वेटर अन्डर्स्टैंड द साउंड ऑफ द सोल..मैं मेलटिना मैम, सुनील भाटिया और कमल बोस का छात्र हो गया...इसी तरह हिन्दू कॉलेज में रामेश्वर राय और रचना मैम का विद्यार्थी. मुझे सच में कभी अफसोस नहीं हुआ कि क्यों हिन्दी की पढ़ाई की, कुछ और क्यों नहीं पढ़ा ?
सच पूछिए तो मैंने वही किया जो करना चाहता था, कुछ भी सपने के हिस्से का छूटा नहीं है..ऐसे में हिन्दी दिवस मेरे लिए स्यापा का नहीं, संभावना का दिन है..अपने टुकड़ों-टुकड़ों में फैले सपने पर एक नजर मार लेने का दिन..बिंदास होने का दिन..एक ऐसी भाषा का दिन जिसमे बोलता हूं तो जितनी सहजता से मेरी मां को बात समझ आती है उतनी ही लंदन की प्रोफेसर फ्रेंचेस्का को भी. हमने हिन्दी साहित्य और भाषा की पढ़ाई इसलिए की क्योंकि हम अपनी जिंदगी की सहजता बचाए रखना चाहते थे..और फिर वही बात, हम कुछ और पढ़ रहे होते तो दूसरे के मोहताज होते, यहां तो जब तक उंगलियों में जान है, बैचलर्स किचन आबाद रहेगा..जिंदगी में बहुत नहीं चाहिए होता है, बस इतना चाहिए होता है कि ज्यादा चाह की मानसिकता के प्रति विरक्ति होने लगे. कल का दिन अपने बर्थडे से भी ज्यादा अच्छे से सिलेब्रेट करुंगा.
हिन्दी पर स्यापा वो करें जो इसे केवल सरकारी संस्थानों, पुरस्कारों और हिन्दी विभाग की जागीर समझ कर बैठे हैं..हमें पता है कि अपनी इस हिन्दी के साथ जिसके पीछे पड़ने पर घर से लेकर बाहर के लोगों के ताने सुने, क्या करना है ? मेरा पिछले 15 सालों में ये भ्रम भी टूटा है कि बाकी के सब्जेक्ट के लोग तीर मार ले रहे हैं. एक बात और बताउं, जिस हिन्दी को लोग पानी पी-पीकर कोसते, गरिआते हैं न, अभी फैशन में ये है कि उसी की दुनिया की सामग्री पकड़कर अंग्रेजी में रिराइट कर दे रहे हैं, चिंतन की हिन्दी की विशाल परंपरा रही है, कुछ नामवरों की मठाधीशी और सामंती लठैती के आगे हम उस दिशा में सोच ही नहीं पाते ज्यादा..
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2 Response to 'हिन्दी दिवस के नाम पर हमें छाती नहीं कूटनी है जी, सॉरी'
  1. दिनेशराय द्विवेदी
    http://taanabaana.blogspot.com/2014/09/blog-post_13.html?showComment=1410628406196#c2518965082443373321'> 13 सितंबर 2014 को 10:43 pm बजे

    हम जो हैं वो हिन्दी के कारण। हम उसी में पले बढ़े हैं।

     

  2. बेनामी
    http://taanabaana.blogspot.com/2014/09/blog-post_13.html?showComment=1426783164314#c1497191377163533556'> 19 मार्च 2015 को 10:09 pm बजे

    बहुत ही शानदार और सार्थक लेख प्रस्‍तुत करने के लिए धन्‍यवाद।

     

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