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आप दिनभर हमसे फोन, एसएमएस और एफबी इनबॉक्स के जरिए सवाल करते रहे कि तरुण तेजपाल को लेकर आपकी क्या प्रतिक्रिया है ? आप कभी मुझे जी न्यूज, कभी एबीपी न्यूज तो कभी न्यूज 24 देखने की बात कहते रहे...आपकी आंखें न्यूज चैनलों पर टिकी थी तो भी हमसे पूछ रहे थे- ये तहलका का क्या मामला चल रहा है ?

मुझे नहीं पता कि ये सवाल आाप सिर्फ मुझसे कर रहे थे या फिर मुझ जैसे मेरे बाकी साथियों से भी जिनका कि इस पत्रिका से संबंध है. मैं पिछले ढाई-तीन सालों से इस पत्रिका के लिए पहले तो सिर्फ टेलीविजन पर लेकिन अब एफ एम रेडियो और विज्ञापन पर कॉलम लिखता आया हूं. सास-बहू सीरियलों और बुद्धिजीवियों द्वारा एफ एम को सतही चीज करार दिए जाते रहने के बावजूद मैंने एक-एक राइट अप के लिए इन माध्यमों को जिया है, छोटी-छोटी चीजों को लेकर लगातार मेहनत की है..पता नहीं, आप पढ़ते हुए ये सब महसूस कर पाते हैं या नहीं. खैर, आपके सवाल पूछे जाने के पीछे मुझे लगता है कि चूंकि मैं हर छोटे-छोटे सवालों और मामूली बातों को लेकर भी अपडेट करता रहता हूं तो आखिर इतनी बड़ी घटना जिसमे देश के लगभग सारे न्यूज चैनलों की प्राइम टाइम समा गई, क्यों चुप हूं..कहीं इसलिए तो नहीं कि ये सब मैं अपने कॉलम को आगे बचाए रखने के लिए कर रहा हूं..एक तरह से कहें तो इन सवालों के जरिए आप मेरी प्रतिबद्धता को जानना-समझना चाह रहे हैं जैसा कि आज से कोई चार साल पहले विभूति-छिनाल प्रकरण में नया ज्ञानोदय को लेकर मेरा पक्ष जानना चाह रहे थे..ये अलग बात है कि इसके बाद आपने किसी भी दूसरी साहित्यिक पत्रिका या मंच को लेकर मेरा पक्ष जानना नहीं चाहा. तब मैं नया ज्ञानोदय में तब मैं मीडिया कॉलम लिख रहा था.

सच कहूं तो दिनभर में मैं अकेले झीजता रहा, मुझे तहलका के अपने उन तमाम दोस्तों का बारी-बारी से चेहरा याद आता रहा जो एक से एक स्टोरी, पुरस्कार, सफलता,प्रोत्साहन की कहानी हम सब से साझा करते रहे. कैसा लग रहा होगा उन्हें, बार-बार यही ख्याल मन में आता..लगा किसी तरह इनसे मिलूं और सोचते-सोचते लगा अब बर्दाश्त नहीं होगा तो बहुत मनुहार करके दिल्ली के सबसे प्यारे दोस्त को बस एक दिन के लिए मेरे साथ रुक जाने को कहा. लगा आज अकेले रात नहीं कट पाएगी. ऐसा तब भी हुआ था जब 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में बरखा दत्त की नीरा राडिया से बातचीत के टेप जारी हुए थे.. ये तो तय है कि हम जब तक मीडिया आलोचना की दुनिया में सक्रिय हैं, हमारी प्रतिबद्धता बार-बार परखी जाएगी और सौ फीसद मरकर भी शायद साबित न हो पाए. लेकिन इन सबके बावजूद जब अपनी हैसियत और क्षमता से इसे बनाए रखने की पूरी कोशिश करते हैं. ये अलग बात है कि हम भी तो उसी हाड-मांस के बने हैं जिससे आप बनकर सवाल की मुद्रा में सामने होते हैं.

कायदे से तो एक मीडिया आलोचक के लिए हर मीडियाकर्मी और संस्थान एक से होने चाहिए लेकिन मेरे लिए जी न्यूज के संपादक सुधीर चौधरी का विज्ञापन के नाम पर दलाली करने में नाम आने और बरखा दत्त के नीरा राडिया के साथ की बातचीत के टेप जारी होना एक नहीं है. स्टार न्यूज( अब एबीपी) के अविनाश पांडे पर उसी चैनल की सायमा सहर द्वारा यौन उत्पीड़न का न केवल आरोप लगाने बल्कि उसके लिए लंबी लड़ाई लड़ने और किसी दूसरे चैनल में आए दिन ऐसे मामले को चलता कर देने का मामला एक नहीं है. ठीक उसी तरह तहलका के एडीटर इन चीफ तरुण तेजपाल पर आरोप/आत्मस्वीकृति किसी दूसरे संपादक पर लगनेवाले आरोपों जैसा नहीं है. जिन बाकी चैनलों और मीडिया संस्थानों में दलाली, कमिशन,यौन उत्पीड़न आदि के मामले होते आए हैं, उन सबने मीडिया के भीतर के स्थायी माहौल और छवि निर्मित करने जैसा काम किया है लेकिन बरखा दत्त, तरुण तेजपाल, नविका कुमार..ये कुछ ऐसे नाम हैं जिनके कटघरे में आने से हमारे भीतर वो यकीन तेजी से चटखता है जिन्हें देखकर, पढ़कर हमने पत्रकारिता के पेशे में आने का मन बनाया. कुछ लोगों ने शायद इनकी जगह दीपक चौरसिया, प्रभु चावला, सुधीर चौधरी जैसे लोगों को भी देखकर बनाया हो और उम्मीदें टूटी हों. ऐसे में इन लोगों के बहाने जब बिचैलिए, लाइजनिंग, यौन उत्पीड़न जैसे किसी भी मामले पर चर्चा होती है तो वो सिर्फ इन पर बात नहीं होती बल्कि उस पत्रकारिता पर भी लगातार चोट करने की कोशिशें होती है जिनके जरिए प्रतिरोध,सवाल और बदलाव होते रहने की उम्मीदें दिखती आयीं हैं. अब ये अलग से बताने की जरुरत है कि हम तरुण तेजपाल के पक्ष से बात कर रहे हैं या फिर उसी संस्थान की महिला पत्रकार के पक्ष में खड़े हैं जिन्होंने साहस के साथ अपने पेशे का सम्मान किया और चीजें हमारे सामने हैं, ये अलग बात है कि दो-तीन दिन ये सब देखते-समझते रहने को भी आप में से कुछ उसकी कौन सी मजबूरी जैसे सवालों के बछौर करते रहेंगे..फिर भी. इधर जो शख्स खुद अपने पक्ष में खड़ा नहीं है, हम उसके पक्ष में खड़े होने का अतिरिक्त पराक्रम भला कैसे दिखा सकते हैं ?

हम तो इस महिला पत्रकार जो रिश्ते में मेरी दोस्त लगेंगी, जिससे मैं कभी मिला नहीं और ये भी नहीं जानता कि किस बीट के लिए काम करती है, को शुक्रिया अदा करते हैं कि ऐसा करके उन्होंने मीडिया इन्डस्ट्री में काम कर रही उन सैंकड़ों महिला पत्रकारों की समाज में तेजी से बनी रही स्टीरियो इमेज को थोड़ा ही सही ध्वस्त करने का काम किया है कि ये तरक्की पाने के लिए किसी भी हद तक मैनेज हो जाती है..नो- नहीं मैनेज होती है..जिस मीडिया मंडी में उपर से नीचे तक सब तेजी से छीज रहा हो, सड़ गया हो..वहां ये करना निजी स्तर के साहस से कहीं ज्यादा एक सोशल कमिटमेंट है और आनेवाले समय में ये बाकी महिला मीडियाकर्मियों को इन स्थितियों में पड़ने पर भिड़ जाने के लिए साहस पैदा करेगा. हम इनके साथ उसी तरह से हैं जैसा कि अब तक निर्भया, दामिनी और उन तमाम लड़कियों-स्त्रियों के साथ रहे हैं..व्यक्तिगत स्तर की जान-पहचान और वाइ च्वाइस नहीं, एक वैचारिकी के तहत जिसका कि हम सबके भीतर बचा रहना बेहद जरुरी है. ऐसे मौके पर अक्सर कुंवर नारायण याद आते हैं-
  या तो अ ब स की तरह जीना है
 या तो सुकरात की तरह जहर पीना है...

दुनियादारी में फंसे हम जैसे लोग जहर तो पी नहीं सकते लेकिन जिंदगी की कुछ कड़वाहट तो झेल ही सकते हैं. बस ये है कि इस कड़वाहट के बीच हम ये भी महसूस कर रहे हैं कि तमाम मीडिया संस्थानों ने इस मामले को जिस तत्परता से अपनी रनडाउन में फीड किया, ठीक इसी तरह की घटना स्टार न्यूज में सायमा सहर के साथ आज से तीन-चार साल पहले घटित हुई थी जिसकी लड़ाई वो अभी भी लड़ रही है..तब मीडिया के सारे दिग्गजों ने ठीक उतनी ही चुप्पी साध ली थी जितना कि अभी मुखर हैं. आजतक के भीतर छेड़छाड़ का मामला आया था, तब हमारे वही संपादक कमर वहीद नकवी ने आज की तरह एक लाइन का बयान जारी करना उचित नहीं समझा था और यही दीपक चौरसिया पर आरोप लगे कि उन्होंने महिला आयोग से सायमा का केस रफा-दफा करवाने में छक्का-पंजा किया. सायमा की इस खबर के द टाइम्स ऑफ इंडिया और नवभारत टाइम्स में छापे जाने के बाद  स्टार न्यूज की तरफ से फोन किए गए और फिर कोई स्टोरी नहीं आयी. स्टार न्यूज के दफ्तर के आगे विरोध में नाटक हुए, सैंकड़ों लोगों ने देखा पर कहीं एक लाइन की पट्टी तक नहीं चली. नेटवर्क 18 की पिछले दिनों की बेशर्मी पर पूरे नोएडा फिल्म सिटी में धरना-प्रदर्शन हुआ लेकिन नेशन को फेस करनेवाले और डंके की चोट पर बात करनेवाले इनके चैनलों ने एक लाइन तक नहीं लिखा कि हम ढाई-तीन सौ लोगों को किकआउट कर रहे हैं..हालांकि ये यौन उत्पीड़न जैसा मामला नहीं है, शायद सीरियस भी न हो लेकिन आज के शो फेस द पीपल में सागरिका घोष आखिर किस नैतिक साहस के बूते ये कहतीं नजर आयीं कि हम मीडिया जब तक खुद तल्ख नहीं होंगे, इन्डस्ट्री के बीच सुधार नहीं होगा..आजतक पर कथावाचन कर रहे पुण्य प्रसून वाजपेयी अपने तत्कालीन दागदार संपादक सुधीर चौधरी की गिरफ्तारी को किस नैतिकता के आधार पर देश के लिए आपातकाल बता गए..ये सारी घटनाएं गूगल की सैंकड़ों हायपर लिंक और ब्लॉगस्पॉट, डॉट इन पोस्टों में मौजूद हैं..कितना कुछ कहा जाए.

इन सबको याद करके यहां कांग्रेस-बीजेपी खेलने का न तो कोई इरादा है और न ही इससे तरुण तेजपाल को लेकर जो कुछ भी चीजें आ रही है, उस पर पर्दा पड़ जाएगा और ऐसा किया भी क्यों जाए लेकिन इतना जरुर है कि इन घटनाओं की मीडिया कवरेज पर गौर करें तो आप सहज अंदाजा लगा सकते हैं कि मीडिया मंडी में सरोकार, प्रोवूमेन इमेज बनाए जाने की कोशिशों के बावजूद एक खास किस्म की लंपटता, धूर्तता हावी है जो यकीन हो जानेवाली घटना को भी बेहूदा बना जाते हैं...असल काम इस मोर्चे पर करने का है जो कि फिलहाल किसी भी स्तर पर संभव दिखाई नहीं देता..हां, इसी बहाने वो संपादक, सीनियर प्रोड्यूसर, एंकर और यहां तक कि मीडिया संस्थान उस कॉमिक रिलीफ का मजा जरुर ले पा रहे हैं जिसके बीच से एक दुस्साहसी खिलाड़ी( पत्रकारिता के स्तर पर) के जाने की संभावना दिखाई दे रही है..निजी कुंठा का भी अपना उत्सव होता है जिसमे क्या पता कल को इस पत्रिका से बुरी तरह चोट खाए राजनीतिक भी हां जी, हां जी करने लग जाएं. बाकी जब सबकी मनोहर कहानियां बनती है तो इसकी क्यों न बनाएं..?

मीडिया संस्थानों से अपील- जिस महिला पत्रकार ने इस साहस का परिचय दिया है, प्लीज उसकी स्टोरी बताने समझाने के लिए तरुण तेजपाल की तस्वीर के पीछे घुटने में सिर झुकाए, शर्म से गड़ जानेवाली मुद्रावाली तस्वीर न लगाएं..आपके लिए जो यौन उत्पीड़न को बर्दाश्त करती है वो भी बेचारी और लाचार है, और जो आवाज उठाती है वो भी...कुछ तो विजुअल सेंस डेवलप कीजिए..हम दर्शकों का नहीं तो कम से कम उस साहस और जज्बे को तो सलाम कीजिए जो न जाने कितने को बेहद बौना साबित कर जाते हैं.
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2 Response to 'तहलका प्रकरणः हमारी प्रतिबद्धता मरकर ही साबित होगी'
  1. दिनेशराय द्विवेदी
    http://taanabaana.blogspot.com/2013/11/blog-post_22.html?showComment=1385085607869#c1625159666332589057'> 22 नवंबर 2013 को 7:30 am बजे

    विनीत, आप ने फिर एक बार अपनी भूमिका को इस आलेख में सिद्ध किया है। इस वक्त जब तमाम मीडिया तरुण तेजपाल पर अपनी तलवारें भाँज रहा है। तब आपने मीडिया की भूमिका को परखा है। स्त्री के प्रति उन के दृष्टिकोण को परखने का प्रयास किया है और यह चेतावनी भी दी है कि स्त्री को घुटनों में मुहँ दिखाए न दिखाएँ। वहाँ तेजपाल और उन की महिला पत्रकार के बीच जो कुछ हुआ है उस के अनेक आयाम हैं। उस घटना को उन सभी आयामों पर परखना होगा और उसी के अनुरूप निर्णय देना होगा। फिर भी आज इस आलेख के लिए आप का आभार।

     

  2. अजय कुमार झा
    http://taanabaana.blogspot.com/2013/11/blog-post_22.html?showComment=1385201907874#c3377846045645931806'> 23 नवंबर 2013 को 3:48 pm बजे

    विनीत भाई , आपकी इसी हुंकार की प्रतीक्षा में थे , ऐसे विषयों पर जब पूरा मेन स्ट्रीम मीडिया अपनी छवि को बचाए बनाए और बसाए रखने की जद्दोज़हद में होता है तब आप उन्हें वो आइना दिखाते हैं जिसमें उन्हें उनका चेहरा बिना किसी मेकअप वाला दिखाई देता है ...मीडिया की नब्ज़ परखने की खूब जिम्मेदारी संभाल रखी है आपने , और क्या खूब संभाल रखी है जी , । निरंतर पढते हैं आपको

     

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