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मनमोहन सिंह को लेकर आम धारणा है कि वो चुप्पा प्रधानमंत्री हैं। वो देश के विविध मसलों पर कुछ भी बोलने के बजाय चुप मार जाते हैं। शायद यही वजह है कि मीडिया में उनका व्यक्तित्व बहुत ही लिजलिजे किस्म का उभरकर आता है और फैसले के मामले में कुछ ऐसा कि छोटी-छोटी बातों के लिए भी सोनिया गांधी से निर्देशित होते हैं। लेकिन आज दि इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम टेलीस्कोप में शैलजा वाजपेयी ने बिल्कुल अलग बात कही है। शैलजा की बातों से हम जैसों की पूरी सहमति तो नहीं बनने पाती है लेकिन गौर करें तो उनकी बातों से मीडिया और दूरदर्शन को लेकर कुछ जरुरी सवाल और संदर्भ जरुर पैदा होते हैं।


शैलजा ने कहा कि निजी समाचार चैनलों में जिस तरह से खबरों के बजाय पैनल डिशक्सशन की मारा-मारी मची रहती है,ऐसे में हार्डकोर न्यूज की गुंजाईश कमती चली जाती है। इससे अलग दूरदर्शन में आपको कई ऐसी घटनाओं औऱ कार्यक्रमों से जुड़ी खबरें मिल जाएंगी जो कि निजी चैनलों का हिस्सा नहीं बन पाते। इसी संदर्भ में अगर आप दूरदर्शन देखते हैं तो आपको पता चलता है कि प्रधानमंत्री देश और दुनिया के  कितने अलग-अलग मसलों पर अपनी बात रखते हैं। जैसे कि पिछले ही सप्ताह हमने उन्हें पर्यावरण से संबंधित ग्लोबल सेमिनार में बोलते हुए सुना। इसी तरह से सोनिया गांधी के बारे में छवि बनायी गयी लेकिन आप दूदर्शन देखते हैं तो आपको दिल्ली से बाहर जिन रैलियों और सभाओं को वो संबोधित करती है,उनमें कई तरह के विचार शामिल होते हैं। हालांकि ये विचार पहले से लिखे होते हैं और उन्हें सिर्फ पढ़ना होता है,फिर भी उनसे कुछ तो धारणा बनती है,कुछ तो सोचने-समझने के बिन्दु मिल पाते हैं।


शैलजा के इस तर्क से एकबारगी तो ऐसा लगता है कि दूरदर्शन जो पिछले 50-52 सालों से सरकारी भोंपू या सत्ताधारी पार्टी का पीपीहा न साबित होने के लिए जूझता रहा,आज भी वो इससे पिंड छुड़ाने में कामयाब नहीं हो पाया है। आज भी दूरदर्शन प्रसार भारती जैसी स्वायत्त संस्था के अधीन काम करने के बावजूद सरकार का ही दुमछल्लो बना फिरता है। लेकिन इससे आगे जाकर सोचें तो कुछ जरुरी सवाल उठते हैं। सबसे पहला सवाल कि क्या प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अगर प्रेस कान्फ्रेंस बुलाकर बयानबाजी करें तभी वो निजी समाचार चैनलों के लिए खबर का हिस्सा है,अगर वो किसी सेमिनार या अकादमिक कार्यक्रमों में अपनी बात रखते हैं तो निजी चैनलों को उसमें दिलचस्पी क्यों नहीं है? इसी से जुड़ा सवाल कि निजी चैनलों के लिए सेमिनार ऐसा कोई कार्यक्रम क्यों नहीं है जिसे कि कवर किया जाए,जिसमें होनेवाले विमर्श खबर का हिस्सा बने। दूसरा कि चैनल खबरों के बजाय पैनल डिशक्शसन को इतनी प्राथमिकता कहीं इस कारण से तो नहीं देता कि वो कम खर्चे और मेहनत में ज्यादा टीआरपी के बताशे गढ़ना चाहता है? वो खबरों के पीछे मेहनत नहीं करना चाहता और कोशिश होती है कि चार अलग-अलग वरायटी के वक्ताओं को जुटाकर गर्म मुद्दे पर बहस करा ले? क्या ऐसे में मनमोहन सिंह इन निजी चैनलों के लिए खबर का हिस्सा नहीं बन पाते? नब्बे के दशक में जब निजी समाचार चैनलों का दौर शुरु हुआ तो राजदीप सरदेसाई ने साफतौर पर कहा था कि हमें सरकार से कोई लेना-देना नहीं है और जरुरी नहीं है कि हर बुलेटिन प्रधानमंत्री के बयान से ही खुले। तब राजदीप की बात काफी हद तक सही लगती थी। खबरों में सत्ता का प्रभाव कम करने के लिए ऐसा किया जाना जरुरी कदम है। यहां तक तो बात समझ में आती है। लेकिन

उसी सत्ताधारी पार्टी के दूसरे नेताओं को सोमवार से शुक्रवार तक प्राइम टाइम में बिठाकर पैनल डिशक्शसन करवाना,मैटर की जगह नैटर को ही खबर का हिस्सा बना देने के पीछे निजी चैनलों की कौन सी रणनीति काम करती है,इस पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है। अगर आपको सत्ता के प्रभाव से दूर ही रहना है तो आपको चाहिए कि आप उनके पक्ष को ही प्राथमिकता देने के बजाय,उनके पीछे खबर निचोड़ने के लिए काम करें। स्टूडियो में उनके ही पैनल बिठाकर और साउथ एवन्यू से पीटीसी देकर जो खबरों के नाम पर पेश करने की रिवायत चली है,ऐसे में आप कहां सत्ता से दूर होकर तटस्थ हो पा रहे हैं? आप तो पहले से कहीं अधिक निकम्मे,पत्रकारिता के नाम पर मठाधीशी का काम करने लगे हैं। एनडीटीवी के रवीश कुमार ने अपनी किताब देखते रहिए में ऐसी पत्रकारिता को लाल पत्थर की पत्रकारिता अर्थात लुटियन जोन की पत्रकारिता करार दिया है। अब अगर ऐसे में मनमोहन सिंह को निजी चैनलों पर बहुत कम या न के बराबर बोलते दिखाया जाता है,जिससे कि मीडिया ने उनकी चुप्पा प्रधानमंत्री की छवि बना दी है तो ये सत्ता के प्रभाव में न आने के बजाय,उससे कहीं अधिक मनमनोहन सिंह की व्यक्तिगत छवि गढ़ने की कवायद ज्यादा है।

अब इस बात पर विचार करें कि अगर मनमोहन सिंह सेमिनारों या अकादमिक कार्यक्रमों में लगातार बोलते रहते हैं तो भी वो खबर का हिस्सा क्यों नहीं बनने पाता? इसकी एक वजह तो साफ है कि निजी चैनलों को तथ्यों और विषयों की गहराई से कहीं ज्यादा इस बात में दिलचस्पी होती है कि उसे लेकर कोई विवाद पैदा हुआ है कि नहीं। अब गुपचुप तरीके से लगभग एक शर्त-सी बन गयी है कि जिस खबर के पीछे विवाद नहीं होते,वो खबर का हिस्सा नहीं है। किसी किताब के बीच से एक-दो लाईन मारकर पूरे मीडिया में विवाद खड़ा कर दिया जाता है। मसलन ये हिन्दू विरोधी तो मुस्लिम विरोधी या दलित विरोधी किताब है लेकिन उसी किताब पर जब दिनभर के लिए सेमिनार आयोजति किए जाते हैं,गंभीर विमर्श होते हैं तो कोई मीडिया ताकने तक नहीं आता। मनोरंजन उद्योग के उत्पादों के लिए पीआर एजेंसियां इसके लिए वाकायदा स्ट्रैटजी तय करती है। अब राजनीति और उसका विज्ञापन भी पीआर और मैनेजमेंट का हिस्सा होता चला जा रहा है तो संभव है कि ऐसा बहुत ही स्ट्रैटजी के साथ किया जाने लगे। ऐसे में मनमोहन सिंह अगर ग्लोबल सेमिनारों में पर्यावरण,आर्थिक मसले या बदलते परिवेश पर बात करते भी हैं तो उसमें निजी चैनलों के लिए कोई न्यूज वैल्यू नहीं है। उनके वक्तव्य विवाद पैदा नहीं करते। ऐसे में लगता है कि अगर मनमोहन सिंह को निजी चैनलों पर बोलते हुए दिखना है तो उन्हें अमर सिंह, दिग्विजय सिंह,बाबा रामदेव या राखी सावंत जैसा बड़बोलापन लाना होगा। निजी समाचार चैनल मितभाषी और गंभीर बातें करनेवाला का सम्मान नहीं करते। ऐसा इसलिए कि जहां इन चैनलों ने इसे कवर करना शुरु किया, उसे विश्लेषण करना होगा,तह में जाना होगा और चैनल ये सबकुछ करना नही चाहता बल्कि अब तो भरोसा होने लगा है कि अगर करना भी चाहे तो मामूली अपवादों को छोड़ दें तो करने की औकात भी नहीं है।

अब वापस शैलजा की बातों पर आएं तो मनमोहन सिंह को अगर निजी चैनल कवर नहीं करते या चुप्पा करार दे दिया है तो उपर के कारणों के अलावे एक कारण ये नहीं है क्या कि वो सामयिक मसलों पर कुछ नहीं बोलते? ऐसे मसले जिनको लेकर उनकी सरकार की साख दांव पर लगी होती है या जिससे व्यापक सरोकार जुड़ा होता है,मनमोहन सिंह ऐसे मौके पर कितना बोल पाते हैं? सेमिनार की गंभीरता और उसके विमर्श का अपना महत्व है लेकिन ये देश सिर्फ सेमिनारों से तो नहीं चलता और मनमोहन सिंह सिर्फ सेमिनारों में बोलकर और जरुरी मसले पर रहकर देश चला भी नहीं सकते। बोलने का मतलब दिग्विजय सिंह हो जाना भले ही न हो लेकिन स्टैंड लेना तो जरुर है न। ऐसे में शैलजा ने दूरदर्शन पर बोलते हुए देखनेवाली बात करके एक जरुरी संदर्भ की तरफ ईशारा ठीक ही किया है लेकिन वो जिस तरह से आगे बातें कर रही हैं,वो मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी को डीफेंड करने जैसा लग रहा है,सॉरी हम ऐसा नहीं कर सकते।


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1 Response to 'मनमोहन सिंह भी बोलते हैं,जरा दूरदर्शन तो देखा कीजिए'
  1. राजन
    http://taanabaana.blogspot.com/2011/07/blog-post_28.html?showComment=1311957735841#c7970459608691555718'> 29 जुलाई 2011 को 10:12 pm बजे

    अच्छा लिखा है.जिन खबरों से विवाद पैदा नहीं होता उन्हें निजी चैनल किनारे कर देते है.और कई बार तो बेवजह विवाद खडा करने की कोशिश करते है,आज सुबह ही न्यूज 24 पर देख रहा था जो सिविल सोसायटी की किरण बेदी द्वारा प्रधानमंत्री की मिमीक्री के लिए पानी पी पीकर कोस रहा था.हालाँकि किरण बेदी का रवैया भी सही नहीं कहा जा सकता लेकिन मुझे नहीं लगता उनका उद्देश्य प्रधानमंत्री का अपमान करना रहा होगा.लेकिन राजीव शुक्ला का ये चैनल तो बोलेगा ही कॉंग्रेस की भाषा.

     

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