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जनतंत्र डॉट.कॉम पर मध्यप्रदेश सरकार के विज्ञापन दिखने शुरु हो गए है। ये संभव है कि बहुत जल्द ही हिन्दी की साईटों और कुछेक ब्लॉगों पर मध्यप्रदेश सहित दूसरे राज्यों के सरकारी विज्ञापन दिखने लग जाए। इसके साथ ही मौके-मौके पर डीएवीपी और तमाम मंत्रालयों की ओर से जो विज्ञापन टेलीविजन और प्रिंट मीडिया में जारी किए जाते हैं वो सारे विज्ञापन इन्हें भी मिलने शुरु हो जाए। चुनाव के दौरान अब तक राजनीतिक पार्टियां विज्ञापन का जो पैसा आर्कुट जैसे सोशल साइटों पर लुटाती रही है,अब वो हिन्दी की साईटों के लिए भी अपना खजाना खोल दे? इस तरह विज्ञापन के लिहाज से हिन्दी वेबसाइट और ब्लॉग मेनस्ट्रीम मीडिया की बराबरी में खड़े हो जाएंगे और सिर्फ खड़े नहीं होगें बल्कि आनेवाले समय में उन्हें कड़ी चुनौती भी दे सकेंगे।

आपको ये सब पढ़ते हुए जरुर लग रहा होगा कि अभी एक विज्ञापन मिला नहीं कि हमें हिन्दी वर्चुअल स्पेस पर विज्ञापन की संरचना को लेकर शास्त्र गढ़ने का कीड़ा काट गया। लेकिन यकीन मानिए उदाहरण तो बस इसी तरह इक्के-दुक्के ही मिल सकेंगे लेकिन इस तरह सरकारी विज्ञापन का आना इस बात का संकेत करता है कि हिन्दी के वर्चुअल स्पेस को अब सीरियसली लिया जाने लगा है। इसके कंटेंट को लेकर असर चाहे जो भी हो लेकिन इन्हें ये बात समझ आने लगी है कि यहां भी विज्ञापन देने से पब्लिसिटी और इमेज बिल्डिंग की गुंजाईश है। दूसरी बात ये कि अब तक हिन्दी वर्चुअल स्पेस में तमाम तरह के अच्छे कंटेंट और कमिटमेंट के साथ मटीरियल देने के बाद भी मामला रिवन्यू मॉडल पर जाकर अटक जाता रहा है। अभी तक किसी भी साइट को( जो कि संस्थागत नहीं हैं)पैसे के स्तर पर मुक्ति नहीं मिली है। ऐसा नहीं हो पाया है कि वो इस तरफ की चिंता किए बगैर लगातार काम करता रहे। एक अकेले भड़ास4मीडिया को इस दिशा में थोड़ी सफलता जरुर मिली है। लेकिन उनके पास भी कोई ठोस रिवन्यू मॉडल है,इसका खुलासा उनकी तरफ से नहीं ही हुआ है। बीच-बीच में विस्फोट के न चला पाने,फिलहाल काम रोक देने को लेकर आ पोस्ट पढ़ते ही आए हैं। बाकी की साइटों का कमोवेश यही हाल है।

इधर ब्लॉगरों की बात करें तो उनकी स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं है। शुरुआती दौर में गूगल एडसेंस से उम्मीद जगी थी औऱ लगा था कि घर बैठे लिखकर भी दाल-रोटी का जुगाड़ किया जा सकता है. मेरे जैसे लोगों को तो तीन-तीन हजार शब्दों के शोधपरक लेख लिखने पर कभी पांच सौ और अधिकांश बार सामाजिक जिम्मेदारी के तहत लिखने की बात ने प्रिंट मीडिया के प्रति पहले ही मोह मंग कर दिया। इसलिए ब्लॉग में दिमागी तौर पर ही तैयार होकर उतरे कि बस लिखने के लिए लिखना है,पैसे की बात नहीं सोचनी है। लेकिन यहां एक वाकई बड़ा सवाल है कि इस फील्ड में जो कोई भी सिर्फ लिखकर जीवन चलाना चाहता है,उसके पास किस तरह का रिवन्यू मॉडल हो? गूगल एडसेंस का तो अंग्रेजी कंटेंट पर जोरदार असर दिखता है लेकिन हिन्दी में लिखनेवालों का चातक पक्षी जैसा हाल है। गूगल की बूंद इतनी धीरे टपकती है कि घड़ा भरने में अर्सा लग जाए और कुछ तो गिरने के पहले ही सूख जाए। एक स्थिति जरुर बनती है कि जब हिन्दी वर्चुअल स्पेस में घरेलू स्तर के विज्ञापनों का चलन बढ़ जाए तो एक ठोस मॉडल सामने आ सकेगा। घरेलू स्तर का संबंध जो ब्लॉग या साइट जिस क्षेत्र या पेशे को फोकस करके चलाए जा रहे हैं वहां के विज्ञापन आने शुरु हो जाएं।

ये मोटे तौर पर तीन स्तरों पर संभव है। एक तो ये कि अगर ब्लॉग या साईट मीडिया,मार्केटिंग,आर्ट जैसे मसलों से जुड़े हो तो उसे उस प्रोफेशन में आनेवाले संस्थानो,उत्पादों,सेवाओं के विज्ञापन मिलने शुरु हों। दूसरा कि जहां से ब्लॉग या साइट संचालित है वहां के बाजार के विज्ञापन मिलने लगे। हर शहर का अपना एक बाजार और विज्ञापन एरिया होता है। ये बात थोड़ी अटपटी जरुर लग सकती है कि वर्चुअल स्पेस तो ग्लोबल है तो फिर लोकल विज्ञापनों की बात क्यों की जा रही है? ऐसा इसलिए कि साइट या ब्लॉग का ग्लोबल रीडर होने के साथ-साथ लोकल रीडर भी होता है और अगर उस पर लोकल स्तर के विज्ञापन होते हैं तो उसका सीधा असर दिखाई देगा। तीसरा कि स्थानीय स्तर पर जो भी गतिविधियां आनी शुरु होती है उसके विज्ञापन उन्हें मिलने लग जाएं। बुकफेयर,ट्रेडफेयर,एग्जीविशन और सेमिनारों को लेकर जो विज्ञापन अखबारों,एफ.एम रेडियो और लोकल केबल ऑपरेटरों को दिए जाते हैं वो इन्हें भी मिलने शुरु हो जाएं। एक तरीका ये भी है कि कई इवेंट को साइट या ब्लॉग वेबपार्टनर की हैसियत से काम करे।

इन सब बातों पर विचार करना इसलिए जरुरी है कि जिन देशों में वर्चुअस स्पेस में विज्ञापनों के जरिए जो मजबूती आयी है उसका मॉडल कमोवेश यही रहा है जिसमें कि सब्सक्रिप्शन तक शामिल है। भारत में फिलहाल सब्सक्रिप्शन वाली बात जमेगी नहीं। नंबर 1 जर्नलिस्ट ने इस दिशा में पहल जरुर की थी कि पैसे लेकर ऑनलाइन पत्रकारिता पढ़ाई जाए लेकिन हारकर उसे साइट को इन्स्टीट्यूट का रुप देना पड़ा। इसलिए आज अगर जनतंत्र को मध्यप्रदेश सरकार की ओर से सरकारी विज्ञापन मिल रहे हैं तो इसका मतलब है कि एक रिवन्यू मॉडल तैयार होने की गुंजाईश बन रही है। फिलहाल इसका बिजनेस इफेक्ट जितना भी हो लेकिन उससे कहीं ज्यादा सायको इफेक्ट होगा और बाकी की एजेंसियां और संस्थान इसके प्रभाव में आएंगे।

दि हिन्दू(11 मार्च 2010) ने खबर जारी किया है कि यूके के साथ-साथ अब यूएस में भी इंटरनेट पर के विज्ञापन ने टेलीविजन के विज्ञापन को पीछे छोड़ दिया है। यानी कि जितने विज्ञापन टेलीविजन को मिला करते हैं उससे कहीं ज्यादा विज्ञापन ऑनलाइन साइटों को मिलने लगे हैं। इसका मतलब ये है कि विज्ञापन के लिहाज से यूके में इंटरनेट पहला माध्यम हो गया है जबकि टेलीविजन दूसरा माध्यम। ONLINE AD SPEND SET TO OVERTAKE PRINT:mercedes bunz की छपी इस आर्टिकल में स्पष्ट किया गया है कि सितंबर के महीने में यूके में जो रिपोर्ट जारी करके बताया गया था कि टेलीविजन के विज्ञापन से इन्टरनेट पर का विज्ञापन कहीं ज्यादा है,यही कहानी अब यूएस में भी हो गयी है। आउटसेल के सर्वे में बताया गया है कि 2010 में वहां की कंपनियां 119.6$ विलियन ऑनलाइन और डिजिटल विज्ञापनों पर खर्च करने जा रही है जबकि प्रिंट माध्यमों पर 111.5$ विलियन। ये आंकड़े बताते हैं कि इन दो बड़े देशों में विज्ञापनों को लेकर माध्यमों की प्रायरिटी बदली है।..ऐसे मैं भारत की क्या स्थिति है इसे भी समझने की जरुरत है। एक तो वर्चुल स्पेस पर विज्ञापन की संभावना और दूसरा उसके भीतर हिन्दी साइटों और ब्लॉगों में विज्ञापन की गुंडाईश। इस मामले में प्राइट वाटरहाउस कूपर(2009)
की रिपोर्ट क्या कहती है..पढ़िए आगे।..
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5 Response to 'टेलीविजन,प्रिंट पर भारी पड़ेगा इंटरनेट विज्ञापन?'
  1. रवि रतलामी
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/03/blog-post_11.html?showComment=1268289110654#c8781233554574201358'> 11 मार्च 2010 को 12:01 pm बजे

    विज्ञापन वहीं आएंगे, जहाँ सार्थक सामग्री प्रचुर मात्रा में होगी और हिट्स बड़े. हिन्दी में बड़े समाचार साइटों (वेबदुनिया, जागरण इत्यादि) को छोड़ दें तो अभी बाकी जगह हिट्स का घोर अकाल है. ऐसे में विज्ञापन दाता विज्ञापन देगा भी तो उसके पैसे तो वसूल होने से रहे.

    सरकारी विज्ञापन अलबत्ता (कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो,) जोड़ जुगाड़ से हासिल किए जाते हैं, और जाते रहेंगे :)

     

  2. ghughutibasuti
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/03/blog-post_11.html?showComment=1268312881260#c4051416044704937660'> 11 मार्च 2010 को 6:38 pm बजे

    विज्ञापन मिलने की प्रतीक्षा लम्बी खिंचेगी। फिर भी आशा तो है ही।
    घुघूती बासूती

     

  3. डॉ .अनुराग
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/03/blog-post_11.html?showComment=1268317695505#c2041426798914115920'> 11 मार्च 2010 को 7:58 pm बजे

    अलबत्ता भारत में ये अवस्था आने में अभी सालो निकल जायेगे क्यूंकि इंटरनेट शायद अभी दस प्रतिशत लोग ही रोजमर्रा के कामो के लिए इस्तेमाल करते है ......

     

  4. अनूप शुक्ल
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/03/blog-post_11.html?showComment=1268496904224#c137603708703722169'> 13 मार्च 2010 को 9:45 pm बजे

    इंतजार है- आगे की पोस्ट का और ब्लाग विज्ञापन का भी।

     

  5. Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय)
    http://taanabaana.blogspot.com/2010/03/blog-post_11.html?showComment=1268592211873#c7242592927392339078'> 15 मार्च 2010 को 12:13 am बजे

    मेरे अन्ग्रेज़ी ब्लाग पर कभी कभी एड रखने की कुछ रिक्वेस्ट्स आ जाती थी...लेकिन वहा भी आधा एडल्ट कन्टेन्ट होता था...हिन्दी ब्लागजगत को इस मामले मे काफ़ी आगे जाना है क्यूकि यहा ब्लागर तो बहुत है..रीडर बहुत कम और वही हिट्स देते है..वही आपकी रीयल पापुलरिटी बढाते है...

    एक और बात, टेक ब्लाग को हिट्स मिलना बहुत आसान होता है और हिन्दी मे असली टेक - ब्लाग है ही कितने.. यहा लोग सिर्फ़ कविता और कहानियो के लिये ही आते है...

    P.S ये मुझे लगता है..

     

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