tag:blogger.com,1999:blog-6898673550088047104.post3637218433659378933..comments2023-10-26T18:12:59.863+05:30Comments on साइड मिरर: गांव की खोज साहित्य और मीडिया में, बुद्धिजीवियों का जमावड़ा दिल्ली मेंविनीत कुमारhttp://www.blogger.com/profile/09398848720758429099noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-6898673550088047104.post-15758342760420610142009-08-24T14:54:24.356+05:302009-08-24T14:54:24.356+05:30मैंने एक बार फेसबुक पर लिखा था- कितना अजीब लगता है...मैंने एक बार फेसबुक पर लिखा था- कितना अजीब लगता है एसी कमरों में बैठकर यह लिखना कि बाहर झूलसा देने वाली गर्मी है। मैं फेसबुक की दिमागी जुगाली से अपनी प्रतिक्रिया की शुरुआत इस वजह से कर रहा हूं क्योंकि गांव-देहात जैसे शब्दों का प्रयोग और वहां की बातें मुझे पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ने को नहीं मिल रही है। खुश हुई कि पाखी ने इस पर संवाद की व्यवस्था की।<br /><br />साहित्य और मीडिया में गांव खोजने जुटे बुद्धिजीवी की बातों को पढ़कर अच्छा लगा, खासकर राजेन्द्र यादव की यह स्वीकारोक्ती कि वे इन बातों से अनजान हैं क्यों कि लेखन के स्तर पर शुरुआती दौर से ही उनका संबंध मध्य वर्ग की समस्याओं से रहा है। उन्होंने कहा कि वो अपने को इस विषय पर बोलने के अधिकारी नहीं मानते। <br /><br />लेकिन इन सबके बावजूद मैं यही कहूंगा शहरी लोगों को मीडिया में गांव को खोजने के लिए कुछ कदम उठाना होगा, आखिर हम वहीं से यहां टपके हैं तो वहां की बातों को हम क्यों भूलते जाएं। इस रपट को पढ़ते वक्त विनीत भाई का मन से शुक्रिया अदा कर रहा हूं, श्रोता के तौर पर मुझे भी रविवार को वहां पहुंचना था, पर कुछ कारणों से नहीं पहंच पाया और पुण्य प्रसून वाजपेयी को यह कहते नहीं सुन सका कि- सच तो ये है कि अब शहर में मन नहीं लगता। शायद इसलिए आज हम गांव पर बात करने के लिए यहां जमा हुए हैं।Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झाhttps://www.blogger.com/profile/12599893252831001833noreply@blogger.com